Draupdi ka mann
हस्तिनापुर युद्ध की ओर बढ़ा था, लड़ने को आतुर हर वीर खड़ा था। शांति प्रस्ताव लेकर भगवान चले, प्रयास था उनका की ये युद्ध टले।
द्रौपदी को शांति प्रस्ताव न भाया, प्रतिशोध से भरा मन अकुलाया। बोली पांचाली, करके प्रणाम। क्या तुम भी भूले मेरा अपमान ? या लगाने चले हो घावों का दाम।
तनिक याद करो वो कुरु राज्यसभा, मेरे घायल मन की व्यथा। दुःशासन ने केशों से मुझे खींचा था, भरी सभा में मुझे घसीटा था।
दुर्योधन मुझ पर खूब हँसा था, कर्ण ने वैश्या कहकर तंज कसा था। दुःशासन ने मुझे हाथ लगाया था, सबने गोविंद, बहुत रुलाया था।
सभा भरी थी महारथियों से, सगे संबंधी और नरपतियों से। उनमें से भी कोई कुछ ना बोला, पितामह ने भी मुंह ना खोला।
मेरा चीर हरण जब हुआ था, मर्यादा का दहन जब हुआ था। कोई सहायता को मेरी ना आया। बस तुमने ही मान बचाया।
मेरा मन भला शांति कैसे चाहेगा? प्रस्ताव तुम्हारा ये कैसे भाएगा? मेरे अपमान का प्रतिशोध तो रण है, दुर्योधन दुःशासन और कर्ण का मरण है।
मेरे ये केश खुले यदि रह जाएंगे, रण में ध्वजा बन ये लहराएंगे। अपमानित जीवन मेरा है जब तक, पांडव कायर कहलाएंगे तब तक।
मैं नहीं चाहती गिरिधर, तुम जाओ, कोई शांति प्रस्ताव अब उन्हें सुनाओ। अब तो रणभेरी तुम बज जाने दो, रणभूमि को मरघट बन जाने दो।
रण में जब दुष्ट सब मारे जायेंगे, पाशे शकुनी वाले सब हारे जायेंगे। शोनित से वसुधा की प्यास बुझेगी जब, मेरे घायल मन की भी आग बुझेगी तब।
मेरा मन जब शांत होगा, नारी का सम्मान होगा। दुःशासन को सजा मिलेगी शांति की प्रथा चलेगी।
सब को यह एहसास होगा, नारी का आत्मसम्मान होगा। प्रेम का पथ विस्तार बढ़ेगा, सबके जीवन का आधार बनेगा।