मृदु वाटिका
///मृदु वाटिका///
वाष्प राशि के प्रणय निवेदन,
तुम अखिलेश धरा के भूप।
तुम्हें चढ़ाऊं आज तुम्हारी ही,
सृष्टि के खिले पुष्प अनूप ।।
स्वाति के प्राणों की दीपशिखा,
मधुरश्मि के सौरभ पुंज।
आत्म निवेदन सत्य वेदना का,
करता मृदु भावों का कुंज।।
सघन सघन पल्लव की राशि,
द्रुत मारुत से करती गान।
परख लो हे भ्रमर तुम ही,
रश्मिरथी का चुंबन अनजान।।
उठते मेघों का द्रुत अवसान,
धूल कणों की मंजिल अनजान।
पुष्प कलिकाएं करती अठखेली,
कभी जागे रजकणों का सम्मान।।
आत्मतोष का मलय अनिल,
चल उड़ लेकर आस तुहिन।
तेरे स्वप्न सुखद चितेरों में,
भरा प्राण नयनों का झीन।।
नव गातों का प्रिय मिलन,
चंचल अर्जन का उत्साह।
उठता वह सजा पुष्पों सा,
बन कर मन अंतर प्रवाह।।
रजनी के आंसू के मोती,
सुधा पुंज तुम चंद्र रश्मि के।
लेकर सुंदर मनोभावों को,
बढ़ो तुम ही हे राशि स्मृति के।।
मूक गीतों का अर्जन भी,
क्या? कोई अर्जन होता है।
जैसे? केवल चेष्टा से ही,
जीवन का सर्जन होता है।।
मधु रसमय सुरभित पुष्प,
क्या मनोभावों में मिलते हैं।
या श्रमजल मृदु वाटिका के,
स्वेद कणों में भी खिलते हैं।।
स्वरचित मौलिक रचना
प्रो. रवींद्र सोनवाने ‘रजकण’
बालाघाट (मध्य प्रदेश)