औरत…..
औरत…..
जाने
कितने चेहरों में
मुस्कराहट सिसकती है
दर्द के पैबंद सीते -सीते
थक गई है
ज़िंदगी
हर रात
कोई मुझे
आसमाँ बना देता है
हर सहर
मैं पाताल से गहरे अंधेरों में
धकेल दी जाती हूँ
उफ़्फ़ ! कितनी बेअदबी होती है
मेरे जिस्म के साथ
ये मिट्टी के पुतले
मेरी मिट्टी को
बेरहमी से रौंदते हैं
मेरी चीखें
खामोशी की क़बा में
दम तोड़ देती हैं
मेरे ज़िस्म पर
न जाने कितने लम्स
कहकहे लगाते हैं
खूंटी पर टंगे आँचल में
मुरव्वत मुस्कुराती है
हर लम्हा कोई चश्म
औरत के गोश्त का
शिकार कर जाती है
सलवटों के हुज़ूम में
ये ज़िस्मानी औरत
रेज़ा-रेज़ा
बिखर जाती है
सुशील सरना