Sahityapedia
Sign in
Home
Your Posts
QuoteWriter
Account
16 Nov 2024 · 1 min read

प्रतीक्षा

प्रिय!
तुम्हारी प्रतीक्षा में
जला देती हूँ कुछ दीप
अनायास
तुलसी के आसपास!

भर जाता है रोम-रोम में
तुलसी की सुरभि से लिपटा
तुम्हारा भाव!
पत्तियों की ओट से झाॅंकती
जलती लौ
हर लेती है मेरा हर अभाव!

मेरे पास रह जाता है,
मेरे शब्दों का पल्लव
स्वप्नकोष का कलरव
और
मेरा तुम्हारे बिना..
बस यूॅं ही बीतना
सिखा देता है अपने प्रेम के तरू को
सजल आवेग से सींचना!

मुझे सहेज लेती है..प्रेम की पावन भक्ति
जीत लेती है मुझे तुम्हारे नेह की
अकल्पित दृष्टि!
मेरी मूक पलकों से बह पड़ती है
तुम्हारे निश्छल वियोग की अभिव्यक्ति!
छलछला पड़ती है
मेरे साथ-साथ,
तुम्हारी सुरभित स्मृतियों से ढकी संपूर्ण सृष्टि!

रश्मि ‘लहर’
लखनऊ

Loading...