Sahityapedia
Sign in
Home
Your Posts
QuoteWriter
Account
9 Jul 2024 · 1 min read

नजरें खुद की, जो अक्स से अपने टकराती हैं।

नजरें खुद की, जो अक्स से अपने टकराती हैं,
ये मैं हूँ या नहीं, आवाजें कानों में आती हैं।
ठहरे क़दमों को मेरी रूठी राहें बुलाती हैं,
जिस सफर ने मुझको छोड़ा था, वही अब पास आती हैं।
क़त्ल मासूमियत का हुआ था, शामें भूल जाती हैं,
अपनी तन्हाइयों में, मेरे साथ को ये आजमाती हैं।
कितने आँसूं बहाये साथ इसके बारिशें हीं बताती हैं,
पत्थर बने जज्बातों पर संग जो मुस्कुराती हैं।
ख़्वाब मुझसे मिलकर खुद को हीं तोड़ जाती हैं,
मेरी हक़ीक़त भरी बातें, उसे जी भर रुलाती हैं।
ये नाराजगियाँ खुद पास आकर, मुझको मनाती हैं,
पर करवाहटों को मेरी देख, खुद से हीं रूठ जाती हैं।
उम्मीदों की खुशबू रेत सी, हाथों को सहलाती हैं,
पर मेरे दर्द की आवारगी, उसे बिखरना सिखाती है।
दिन की रौशनी बिन बुलाये हीं, अब चौखट सजाती हैं,
पर मेरी आशिक़ी अंधेरों से देख, वो भी चौंक जाती है।
ये बदलाव यूँ हीं तो नहीं, मेरी शख्सियत पे छाती है,
बर्फ़ीली वादियों की तन्हाईयाँ, अब भी मेरी चीख़ें गुंजाती हैं।

Loading...