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12 May 2024 · 2 min read

दोहावली

हर जीवों में श्रेष्ठ जो, मर्त्य लोक इंसान।
लोभ-मोह अरु क्रोध ने, बना दिया हैवान।।१।।

मन-मानव में आपसी, छिड़ी श्रेष्ठ की जंग।
इसी सोच से हो रहा, काल चक्र नित भंग।।२।।

जब भी करता कर्मठी , करता कर्म कठोर।
वहीं आलसी दूर से , करता केवल शोर।।३।।

उल्लू जैसे काठ का , साधारण इंसान।
चापलूस अनपढ़ यहाँ, देता उसको ज्ञान।।४।।

मन में दृढ़ विश्वास हो, तप हो पूर्ण कठोर।
मिट जायेगी कालिमा, निश्चित होगी भोर।।५।।

सम रूपी संसार बस, सम्यक विषम विधान।
सुख-दुख जीवन सारथी, सागर लहर समान।।६।।

तुलना बेशक कीजिये, पर कुंठा को त्याग।
तुलना के ही अंग हैं , मन के राग-विराग।।७।।

लाख जतन कर थक गया, मिला पूर्व परिणाम।
रचा – धरा जो ब्रह्म ने, कैसे हो निष्काम।।८।।

भिन्न-भिन्न हैं जातियाँ, भिन्न-भिन्न हैं जीव।
भिन्न-भिन्न परिवेश से, सृष्टि सबल मणि-ग्रीव।।९।।

जब सोने की बात हो, करें खरा उपयोग।
हो कोई मानव खरा , जलते सारे लोग।।१०।।

भिन्न-भिन्न हैं बोलियाँ, भिन्न-भिन्न हैं लोग।
भिन्न-भिन्न परिधान में, एकाकी मन योग।।११।।

भागीरथ अह्वान पर, धरा हुई जल मग्न।
गंगा को स्पर्श कर , पुरखे हुए प्रसन्न।।१२।।

भिन्न-भिन्न दोहावली, भिन्न-भिन्न है सार।
लिखने वाले भिन्न पर, सबके एक विचार।।१३।।

जीवन की राहें कई, कई रूप अरु रंग।
कई तरह के लोग हैं, कई तरह के ढंग।।१४।।

कलयुग बैठा शीश जब, गई तभी मतिमार।
भ्रात भ्रमित हो भ्रात पर, करने लगा प्रहार।।१५।।

खर्च सदा धन को करें, खर्च करें निज ज्ञान।
कार्य करें तो बल बढ़े , संचय कर सम्मान।।१६।।

धन-बल ज्ञान समान हैं, इनका यही उपाय।
संचय से यह शून्य हों , खर्च करे हो आय।।१७।।

गिनती की साँसें मिलीं, मिला जीव दृढ़-संध।
जीवन यह सम्पूर्ण हो , कर्मठ करे प्रबंध।।१८।।

शब्दों से होता नहीं, भावों का अनुवाद।
शब्द बँधे अनुबंध में, भाव रहे आजाद।।१९।।

देख झलक जल पात्र में, दिया नेत्र झष भेद।
वरण किया तब पार्थ ने, द्रुपदसुता जमशेद।।२०।।

द्वैतवाद से है ग्रसित, लगभग हर इंसान।
उथल-पुथल में जी रहा, मेंढक कूप समान।।२१।।

नेक भाव समता सुगम , सुगम सकल संसार।
अगम अगोचर है कठिन, सुगम खोलता द्वार।।२२।।

संयम साधन सह सुगम, सुगम सिद्धि संज्ञान।
सुगम सुदर्शन सत्य सा, संयम सबक समान।।२३।।

कर्म, समय अरु जिंदगी , पोषक सच्चे तीन।
जो समझे वह योग्य है , बाकी संज्ञाहीन।।२४।।

कर्म योग्य को खोजता , समय बताता मूल्य।
खपत सिखाये जिंदगी, जड़ता पोषित शूल्य।।२५।।

संभववादी भावना, कर स्थिति अनुकूल।
बढ़े अगर विपरीत पग, चुभ जाये यम शूल।।२६।।

गृह शोभा नारी बने , कुल शोभित संतान।
मन की शोभा कर्म से, तन शोभित परिधान।।२७।।

ध्यान रहे इस बात का, करना है कुछ काम।
समय गुजरता जा रहा, छोड़ो अब आराम।।२८।।

निश्छल सुख सौन्दर्य का, अलग-अलग उपनाम।
रूप – कुरूपा हरि रचें , जड़ – चेतन अभिराम।।२९।।

अंत काल सब छूटता , धन-दौलत, परिवार।
दान, दया, सद्भाव ही, अक्षय निधि सरकार।।३०।।

उत्तर दक्षिण में दिखे, प्रतिदिन एक प्रकाश।
कहें अरोरा सब उसे, करता जो तम नाश।।३१।।

बरखा अति अप्रिय लगे, अति सूखा निसहाय।
मध्यम मनु जीवन सरल, अतिशय नहीं उपाय।।३२।।

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