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5 May 2024 · 1 min read

कविता.

कविता
********
सदियों से इन्दज़र
कर रही हूँ मैं
अपनी पुरानी
किताब के साथ
इक कविता को
जनम देने केलिए.

युगों से बैठा है
मैंने इस पेड़
के नीचे
अपनी तूलिका
लेकर
इक कविता को
जनम देने केलिए .

धूप गयी
बरसात आयी.
बीत गयी
बर्फ़ीली रात भी.
सूख गयी
खुली कलम
की स्याही.
नहीं आयी
एक ही अक्षर
मेरी कलम से
बाहर.

नहीं
दे सका है
जनम मुछे
इक
कविता को ही.

दिलके
अंदर की
गहाराई
में जल गयी
शब्द और अक्षर
एक ही पंक्ति
आई नहीं बाहर
अभी तक.

नहीं दे सका
जनम
मुछे इक
कविता को ही.

बंद करने दो मुछे
अपनी कलम
और किताब.
नहीं दे सकती
मुछे इक
कविता को
ही जनम

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