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17 Mar 2024 · 2 min read

माँ की कहानी बेटी की ज़ुबानी

आज हाथ लगी माँ की ज़िंदगी की किताब
धूल भरे पन्नों में दबे थे क़िस्से और ख़्वाब
अल्मस्त बचपन था बेसुध बेफ़िकर यौवन
फ्रॉक से साड़ी तक के सफ़र का हिसाब

मंगलसूत्र सिंदूर सोहर सुहाग साजन
बिन्दी बिछिया पायल काजल कंगन
नयी उमंगें नई तरंगें रोम रोम उन्माद नया
भूल चली नन्ही कली बाबुल का आंगन

गठरी में मठरी संग बांध लाई सपने सुनहरे
चोलिये में चुन चुन डाले थे चंचल नख़रे
विदाई के बक्से में अरमानों की तह लगाई
घूँघट में छुपा लाई शोख़ शरारती नज़रे

फिर एक दिन मेरी माँ भी माँ बन गई
अल्हड़ छोरी न जाने कब बड़ी हो गई
अपनी माँ से तब वो क्या बातें करती होगी
घर गृहस्थी बच्चे या अपने मन की कहती होगी

पापा प्रेम प्रगाढ़ किया तुमने फिर क्यूँ वादा तोड़ गये
सात जनम की क़समें खा कर इस जनम ही छोड़ गये
कैसे जियेगी माँ तुम बिन एक पल को तो सोचा होता
उन बाहों में थी जन्नत फिर किस जन्नत की ओर गये

तुमको ढूँढती है अँखियाँ उसकी हर कोने हर पहर
आसमान में टकटकी लगाये तुम्हें ढूँढती है नज़र
कब मिलोगे कहाँ मिलोगे कुछ तो बतला जाते
हुआ जीवन का हर रंग फीका क्या तुम्हें है खबर

माँ तुम हर रंग पहना करो हर रंग तुम पर फबता है
तेरी बिंदिया के आगे सूरज भी फीका लगता है
पीला आँचल जब लहराती लहराते हैं सरसों के खेत
तेरी चूड़ियों वाले हाथों पर मज़बूत कंधा टिकता है

तेरे छत का सूरज मेरे आँगन भी आता है
उठ जाग मुसाफ़िर भोर भई गाकर मुझे जगाता है
वो कबूतर जिसको तुम देती हो दाना पानी
कभी कभी मेरी खिड़की पर भी मंडराता है

तेरी साड़ी पहन क्या मैं तुम जैसी बन पाई
तेरे किरदार की ख़ुशबू क्या मेरी साँसों में समा पाई
तेरी परछाई थी फिर क्यों कर कैसे अलग हुई
माँ तुम मेरे हिस्से इतना कम क्यों आई

माँ के अस्सीवें जन्मदिवस पर उनको समर्पित 🙏

रेखांकन I रेखा ड्रोलिया

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