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24 Jan 2024 · 1 min read

बगिया

बगिया
रचनाकार :-डॉ विजय कुमार कन्नौजे छत्तीसगढ़ रायपुर
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क्या कसूर है किसी का, बगिया देख ललचा जायें।
कभी गुलाब कभी मोंगरा, कभी गेंदा पे नजर लग जायें।।

महर महर महकती बगियां,भौंरे करते गुंजार
चिड़ियां भी चहकती सुंदर,माली मिले हजार

लहलहाते झुमते कलियन, फुलों की अम्बार
कहीं केकती कहीं केवड़ा,की रगों में भरमार

न जाने कब कहां पर, भौंरा मन चला है जाये
क्या कसूर है किसी का , बगियां देख ललचा जाये

फुलों की कलियां में,है स्नेह भाव झलकता
मोरनी मोर मिलन देख ,कवि हृद धधकता

जीवन में पहली बार कवि, किसी बगियां में पहुंचा ।
कांटों का तार लगा देख ,मन मसोट कर लौटा।।

चिल्ला रही थी बगियां सुंदर,पुछ रही थी क्यों आये।
क्या कसूर है किसी का बगियां देख ललचा जाये।।

फुलों की वहां अम्बार लगी थी,सामने केवल गुलाब लगी थी।।
गुलाब ही है शायद,,कि रंगों में झुम रही थी,
मचलती इठलाती,लहराते हवा में उड़ रहीथी

कभी साहस, कभी भय, कभी कवि हृदय रोता है
कांटों का प्रवाह न करें,,उनका ही विजय होता है।

न जाने कब कहां पर, कौनसा आफत आ जाये।
क्या कसूर है किसी का, बगियां देख ललचा जाये।।

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