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12 Jan 2024 · 1 min read

सज़ल

शीत में वातावरण यूँ गल रहा है।
लुकाछिपी करके सूरज छल रहा है।

हो गयी है रात लम्बी इस तरह कि ।
शाम में ढ़लने को दिन मचल रहा है।

प्रकृति भी कुहरे की चादर ओढ़कर ।
गलन में उसे कँपकँपाना खल रहा है।

श्वेत पालों ने बिगाड़ा रूप पल्लव ।
रंग फूलों का भी जैसे बदल रहा है।

अव्यवस्थित सबका जीवन हो गया है।
बर्फ में मन जैसे सबका जल रहा है।

“महज़ ” मुखड़ा दीखता है मनुज का I
कपड़े इतने पहनकर वो चल रहा है।

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