Sahityapedia
Sign in
Home
Search
Dashboard
Notifications
Settings
31 Dec 2023 · 9 min read

दलितों, वंचितों की मुक्ति का आह्वान करती हैं अजय यतीश की कविताएँ/ आनंद प्रवीण

अजय यतीश सर के दोनों काव्य संग्रह ‘स्पार्टकस तुम्हारी मेहनत बेकार नहीं गई'(2019) और ‘मुक्ति के लिए'(2022) को एक साथ पढ़ने और समझने की जरूरत है। इसके दो कारण हैं। पहला, स्वयं अजय सर ही लिखते हैं कि पहले काव्य संग्रह को मिले अभूतपूर्व प्रेम से प्रोत्साहित होकर ही मैंने बाद में जो कविताएँ लिखीं वह दूसरे काव्य संग्रह में संकलित हैं। इसी बात को आधार बनाकर प्रसिद्ध आलोचक कँवल भारती जी भी दोनों संग्रहों पर एक साथ समीक्षा लिखते हैं। दूसरा कारण यह है कि दोनों संग्रहों से गुजरते हुए मैंने महसूस किया कि भले ही दोनों संग्रहों के मूल प्रश्न अलग हैं फिर भी दोनों में गहरा संबंध है और इन दोनों प्रश्नों पर एक साथ विचार-विमर्श करने की आवश्यकता है। इसे एक उदाहरण से समझा जा सकता है। पहले संग्रह में एक कविता है ‘समय’ (पृष्ठ संख्या 78)

मुट्ठी भर जमीन
और चंद रोटी के टुकड़ों के लिए
उठाई गई आवाजें
बूटों तले रौंद दी जाती हैं
सूखे पत्ते की तरह
समय की लकीरें

जब भी बदलना चाहा
मिटा दिये गए वे
स्लेट पर उगे शब्दों की तरह
लेकिन आखिर
कब तक
मिटते रहेंगे वे इस तरह ?

और दूसरे काव्य संग्रह की कविता ‘कुचक्र’ (पृष्ठ संख्या 79)

असत्य को सत्य
ठहराने की साजिशें
हो रही हैं।
अपने बनाए गए
नीतियों के कोहरे में
वे उलझाए रखना चाहते हैं
क्योंकि
एक बौखलाया हुआ समाज
अत्याचारों की
वापसी का कुचक्र
गढ़ने में व्यस्त है।

क्या इन दोनों कविताओं को एक साथ पढ़ने से सारी बातें हम पाठकों के बीच स्पष्ट नहीं होती हैं ? बिल्कुल होती हैं। पहली कविता में कमजोर तबके के लोगों की जीजिविषा है तो दूसरी में अभिजात्य वर्ग का घृणित कुचक्र। पहली कविता लड़ते रहने की प्रेरणा देती है तो दूसरी जिससे लड़ना है उसका वास्तविक रूप स्पष्ट करती है। मेरी समझ में इन दोनों प्रश्नों को एक साथ देखने की आवश्यकता है। ऐसी और भी कई कविताएं हैं जिसे अन्य कविता के साथ पढ़ते हुए बातें स्पष्ट होती हैं।
अजय यतीश सर की कविताएं पढ़ते हुए हमेशा सचेत रहने की आवश्यकता है नहीं तो कविता के मूल भाव तक पहुँचना मुश्किल होगा। वे जब स्त्री वेदना की बात करते हैं तो स्वयं को ही स्त्री मान कर उस वेदना से गुजरते हैं। यही कार्य ट्रांसजेंडर की पीड़ा को शब्द देते हुए भी करते हैं और किसी अनाथ बच्चे के दर्द को व्यक्त करते हुए भी। इसलिए यह कहा जा सकता है कि वे जब किसी समस्या को शब्द दे रहे होते हैं तो समस्या उनसे दूर नहीं रहती है बल्कि वे खुद समस्या झेल रहे लोगों में से ही हो जाते हैं जिससे रचना वास्तविक हो उठती है। कुछ कविता में वे शोषक समाज का हिस्सा बन कर भी समाज में हो रहे बदलाव को देखने की कोशिश करते हैं। ऐसी स्थिति को अभिनय के क्षेत्र में परकाया प्रवेश करना कहा जाता है। यह उनके लिए इसलिए भी सरल बन पड़ा है, क्योंकि वे रंगमंच पर एक सफल अभिनेता भी रहे हैं। ऐसी एक कविता ‘जहरीली आवाज़ ‘ को पढ़िए और देखिए कि हो रहे सामाजिक बदलाव किसके लिए भय और जहर पैदा कर रहा है —

न जाने क्यों
गाँव जाने से
डरने लगा हूँ
गाँव का वह पीपल
जहाँ थके-मांदे लोग
बोलते बतियाते
आराम फरमाते थे
पता नहीं अब क्यों काटने दौड़ता है।
हरिया दुसाध
पहले पांयलगी मालिक कहता था
अब बगल से
सीना ताने गुजर जाता है
चैता और फागुन के गीत
की जगह जिन्दाबाद, मुर्दाबाद
की जहरीली आवाजें
गूँजने लगी हैं
दिल दहशत से
डर जाता है, पता नहीं क्यों ?

इस कविता से साम्य रखती पर अलग दृष्टिकोण से लिखी गई एक कविता ‘आसमान के कितने रंग’ की पंक्तियां देखिये –
‘समय के साथ आसमान
न जाने कितने रंग बदलता है
जिनकी चाहत
सिसक रही थी
बंद पिंजरे में
वे बादलों के नीचे
तैरने लगे हैं।’

इसी कविता में आगे की पंक्तियां हैं कि
‘मुट्ठियों में जो
कैद रखना चाहते हैं
हवा, पानी और धरती को
कितनी अजीब सी बात है
कि बाज खुद बंद होने लगे हैं
इन दिनों पिंजरों में
बेजान पंखों के साथ
हारे हुए हताश।’

बाबासाहेब डॉ भीमराव अंबेडकर और हमारे संविधान पर कई महत्वपूर्ण रचनाएं दोनों संग्रहों में हैं। जैसे – ‘महामानव’ , ‘ सबसे जरूरी किताब’ आदि।
मुश्किल नहीं हाथियों को
दो पैरों पर चलाना
मुश्किल नहीं आदमखोर भेड़ियों को
उँगलियों पर नचाना
पर बहुत मुश्किल है छू तक पाना
उन छोटे लिजलिजे दीमकों को
जो चाट रही इस मुल्क की
सबसे बड़ी और जरूरी किताब।

जब झारखंड नहीं बना था तब आज का दक्षिण बिहार, मध्य बिहार था और वहाँ पर जातीय वर्चस्व की लड़ाई चरम पर थी। ‘कहीं बस्ती जल गई, कहीं नरसंहार हो गया’ वाली स्थिति थी। इसी को निशाना बनाकर लिखी गई कविता है ‘ये है मध्य बिहार’ इस एक कविता से उस समय की भयावह स्थिति का थाह लिया जा सकता है –
‘हवा में उछलती मुट्ठियांँ
फिजा में गूँजती चीखें
गले में गोलियों का हार
ये है मध्य बिहार…’

ऐसी विकट स्थिति में भी भेदभाव पीछा नहीं छोड़ता था। नरसंहार किस जाति के लोगों का हुआ इस आधार पर नेता और अधिकारी पहुँते थे। न्याय पाने में भी कमजोर तबके के लोग हमेशा पीछे रहे हैं तो तब तो और अधिक रहे होंगे।
‘लाशों के हिसाब’ शीर्षक कविता में इस बात का जिक्र है –
जल उठी थी झोपड़ियां अचानक
क्रंदन और चीत्कारों
की आवाजें लगी थी गूंजने
फिर
सबकुछ हो चुका था खामोश
बड़ी मुस्तैदी से
तड़के सुबह
बूटों की आवाजें लगी थी गूंजने
खींची जाने लगी थी संजीदगी से
लाशों की तस्वीरें
किए जाने लगे थे
लाशों के हिसाब
मुआवजे के लिए।

किसे कितना न्याय मिलेगा इसका निर्धारण हमारे यहां जाति के आधार पर होता रहा है। कत्ल हो या बलात्कार सबके लिए जाति तो महत्वपूर्ण होगी ही। हाथरस कांड इसका ताजा उदाहरण है। वहां बलात्कारी सवर्ण था और भुक्तभोगी दलित बच्ची, जो जीवित भी नहीं रह पाई। पर इससे क्या पैमाना थोड़े बदल जाएगा। बलात्कारी सवर्ण को कम-से-कम सजा हुई और शायद अब जेल से छूट भी गया है। न्याय ने जो उसका हौसला अफजाई किया इससे प्रभावित होकर वह किसी और बच्ची का बलात्कार करेगा और फिर जेल से रिहा हो जाएगा। ऐसी ही घटना हैदराबाद में भी हुई पर वहां लड़की सवर्ण थी इसलिए बलात्कारियों को ग़लत तरीके से ही सही पर मौत की सजा मिल गई। ऐसा इसलिए है क्योंकि न्यायपालिका में दलितों – बहुजनों की उपस्थिति नगण्य है और कहना न होगा कि न्यायपालिका पर बाह्य शक्ति का बहुत प्रभाव है जो कमजोरों को पीड़ा देकर खुश होती है।

‘आपके अंदर का हिंसक पशु
परपीड़ा में ही खुश होता है
इसलिए कि आप में
पशुता के स्वभाव के साथ ही
आदमखोर और हिंसक भाव मौजूद है
आज भी।’
(‘वक्त का तमाचा’ शीर्षक कविता से)

जो लोग दलित साहित्य को सिरे से नकारते थे और इसमें शिल्प का अभाव बताते थे वही लोग आजकल दलित साहित्य के हिमायती बनने की कोशिश कर रहे हैं और किसी तरह दलित जीवन पर लिख- लिख कर खुद को दलित साहित्य में स्थापित करना चाहते हैं। उन्हीं लोगों को रेखांकित करती कविता ‘यातना का शिल्प’ की पंक्तियां – ‘मेरे लेखन पर
उड़ाते उपहार
शिल्प का अभाव बताकर
छींटें कसते
खामियों पर हँसते
लिख रहा हूँ
शब्दों को साध रहा हूँ
तरास रहा हूँ
यातना का इतिहास।’

इसी कविता में आखिरी पंक्तियां हैं –
‘आपके द्वारा
गढ़े गए शब्दों के
मलबे में कुछ भी नहीं है मेरे लिए
सिर्फ अंतहीन यातना के सूत्र
और फरेब के सिवा।’

क्या ऐसी सोच दलित रचनाकारों की संकीर्णता है? बिल्कुल नहीं, बल्कि वास्तविकता यही है कि जो दलित जीवन को जिया नहीं है वह दलित साहित्य नहीं रच सकता है। इस सोच का उपहास उड़ाते हुए काशीनाथ सिंह ने कहा था कि इसका मतलब घोड़ा पर लिखने के लिए घोड़ा होना‌ पड़ेगा। इसके प्रत्युत्तर में ओमप्रकाश वाल्मीकि जी लिखते हैं कि एक रचनाकार से ऐसी ओछी सोच की कोई उम्मीद नहीं कर सकता है। क्या मनुष्य एक घोड़ा को उतना जानता है जितना कि दूसरा घोड़ा? दायरा बढ़ाने का मतलब यह कतई नहीं हो सकता कि हम अपना उद्देश्य ही भूल जाएं। उद्देश्य हमेशा महत्वपूर्ण होता है। यह स्थापित सत्य है कि अनुभव से उपजा साहित्य कल्पना से उपजे साहित्य की तुलना में अधिक प्रभावी और महत्वपूर्ण होता है। अगर हमें सूडान के बारे में जानना होगा तो सूडान के लेखकों की रचनाएं पढ़नी चाहिए न कि सूडान के बारे में अनुमान लगाने वाले लेखकों की रचनाएं। अजय यतीश सर ने भी ट्रांसजेंडर की वेदना को उकेरने की कोशिश की है –
‘आखिर कसूर क्या था मेरा
जो हमें कर दिया गया अपने ही
घर से बेदखल
कोख तो कभी भेद नहीं करता
भाई- बहन को मिला प्यार
और हमें दुत्कार
माँ !…’
इन रचनाओं का महत्व केवल इतना है कि ट्रांसजेंडर तक इसकी ज्वाला पहुँच सके और वे अपने बारे में लिखने के लिए कलम उठा सकें। इसके अतिरिक्त उन पर लिखी कोई रचना (जोकि ट्रांसजेंडर लेखकों की न हो) बड़ा से बड़ा पुरस्कार भी पा ले पर कोई महत्व नहीं रखता। संवेदनशील होना एक बात है और हकमारी करना बिल्कुल दूसरी। अजय यतीश सर ने यहां और अन्य कविताओं में ट्रांसजेंडर के प्रति अपनी संवेदना दिखाई है क्योंकि वे उन तक अपनी लेखनी पहुँचाना चाहते हैं न कि पुरस्कार वितरक के पास।

धार्मिक उन्माद का चेहरा समय समय पर सामने आ ही‌ जाता है जिसका अत्यंत आक्रामक रूप पूरी तरह संवेदनहीन होता है। उसके लिए नियम ही सबकुछ होता है, प्रेम कुछ भी नहीं। दलितों के लिए हिंदू धर्म में कितना और किस तरह का स्थान है यह किसी से नहीं छुपा है फिर भी हिंदुओं की भीड़ में उन्हें ध्वज फहराते देखा जा सकता है।यह स्थिति दलित बुद्धिजीवियों को कष्ट पहुँचाती है पर उनके पास इस स्थिति को बदलने का कोई मजबूत औजार नहीं है। संग्रह में ‘उद्घोष’, ‘आतंक का कहर’, ‘सबूत’, ‘कारवां के साथ’ आदि कविताएं धार्मिक आधार पर रची गई हैं।

‘उफ़ यह भयानक उद्घोष
फिर गूंँजा है
गुम्बदों पर बैठे परिंदे
उड़ चले
शहर हो चला
अचानक उदास
न जाने कब क्या होगा
अगला पल
अनिश्चित भविष्य में लटका कल’
(‘उद्घोष’ शीर्षक कविता से)

वहशियों की बस्तियों में
चलता है एक मात्र
उनका ही राज
जहाँ नहीं होती कोई
प्रतिरोध की दीवार
उनके पास है
अंध-धर्म का
कारगर हथियार
(‘आतंक का जहर’ शीर्षक कविता से)

यही धार्मिक उन्माद कभी- कभी किसी निरपराध की हत्या इसलिए कर देता है क्योंकि वह उसके धर्म का नहीं होता है।
‘सबूत’ शीर्षक कविता इसी संदर्भ में लिखी गई है।
इस धार्मिक बौखलाहट से तंग आकर ‘कारवाँ के साथ’ शीर्षक कविता में लिखते हैं —

रखो अपने ईश्वर को
अपने पास
वह हो सकता है
तुम्हारे लिए खास
फिलहाल मैं तो चला
भीम कारवाँ के साथ
संघर्ष का अलाव लिए।

इस तरह हिंदू देवी-देवताओं से मुक्त होकर भीम कारवाँ के साथ चलना पलायन नहीं बल्कि समय की मांग माना जाएगा क्योंकि वहां –
‘जातीय क्षत्रप हमें
तीखी यंत्रणाओं के घेरे में
कैद रखना चाहते हैं
पिंजरे में
बेजुबानों की तरह
अपनी आदम भूख के लिए।’
(‘आदम भूख के लिए ‘ शीर्षक कविता से)

उस हीनता की चक्की से मुक्त होकर हम जैसे ही खुद को आंबेडकरवाद से युक्त करते हैं, चेहरे पर एक मीठी सी मुस्कान पाते हैं जिसे कवि ‘मुनासिब मुस्कान’ कहते हैं–
आज हमारे पास असीम धैर्य है
अतीत के कूड़े को
साफ करने में
हम कामयाब होते जा रहे हैं
जीवन में मुनासिब
एक मुस्कान लाने के लिए।

कवि ने लगभग सभी विषयों पर लिखा है। जैसे – चुनाव में खुद को मसीहा साबित करने वाले अगर चुनाव हार जाए तो उसका वास्तविक चेहरा सामने आ जाता है। इसी को आधार बनाकर ‘मसीहा’ शीर्षक कविता लिखी गई है। लोगों के घर में काम करने वाली औरतें किस प्रकार दोहरी-तिहरी भूमिका निभाती हैं उस पर भी रचनाएं मिल जाएंगी। आदिवासी जीवन और उनका दुःख-दर्द उनसे कैसे छूट सकता है। प्रकृति और आदिवासी जीवन को कवि बखूबी समझते हैं। ‘दामोदर नदी’ शीर्षक कविता में लिखते हैं-
वह तेरे घर में
कौन भर गया आकर
बारूदी गंध और
फिजा में जहरीली हवाएं।

क्या यह केवल हवा और पानी के प्रदूषित होने का जिक्र है? क्या यह समाजिक प्रदूषण का जिक्र नहीं है? इस पर विचार करने की आवश्यकता है।

दोनों संग्रहों में मुख्य रूप से मुक्ति की ही बात की गई है और यही हमारा और हमारे समाज और देश की आवश्यकता है। समग्र रूप में यह कहा जा सकता है कि अजय यतीश सर की सभी रचनाएं मुक्ति के लिए ही लिखी गई हैं – वंचितों, दबे-कुचलों की मुक्ति के लिए।

आनंद प्रवीण
छात्र, पटना विश्वविद्यालय
सम्पर्क- 6205271834

334 Views

You may also like these posts

आंखों की भाषा
आंखों की भाषा
Mukesh Kumar Sonkar
4040.💐 *पूर्णिका* 💐
4040.💐 *पूर्णिका* 💐
Dr.Khedu Bharti
पूर्णिमा
पूर्णिमा
Neeraj Agarwal
मन में एक खयाल बसा है
मन में एक खयाल बसा है
Rekha khichi
मुक्तक
मुक्तक
नूरफातिमा खातून नूरी
I love sun
I love sun
Otteri Selvakumar
जिज्ञासा
जिज्ञासा
Dr. Harvinder Singh Bakshi
😊सुप्रभातम😊
😊सुप्रभातम😊
*प्रणय*
विश्व कविता दिवस पर हाइकु
विश्व कविता दिवस पर हाइकु
राजीव नामदेव 'राना लिधौरी'
*फिर तेरी याद आई दिल रोया है मेरा*
*फिर तेरी याद आई दिल रोया है मेरा*
DR ARUN KUMAR SHASTRI
स्वान की पुकार/ svaan ki pukar by karan Bansiboreliya
स्वान की पुकार/ svaan ki pukar by karan Bansiboreliya
Karan Bansiboreliya
पहला प्यार
पहला प्यार
Prithvi Singh Beniwal Bishnoi
यार कहाँ से लाऊँ……
यार कहाँ से लाऊँ……
meenu yadav
आईने में अगर
आईने में अगर
Dr fauzia Naseem shad
संत कवि पवन दीवान,,अमृतानंद सरस्वती
संत कवि पवन दीवान,,अमृतानंद सरस्वती
डॉ विजय कुमार कन्नौजे
खो गई हो
खो गई हो
Dheerja Sharma
कब भोर हुई कब सांझ ढली
कब भोर हुई कब सांझ ढली
सुरेश कुमार चतुर्वेदी
आपस की गलतफहमियों को काटते चलो।
आपस की गलतफहमियों को काटते चलो।
Prabhu Nath Chaturvedi "कश्यप"
तड़पता भी है दिल
तड़पता भी है दिल
हिमांशु Kulshrestha
छोटी सी बात
छोटी सी बात
Kanchan Khanna
चूहा भी इसलिए मरता है
चूहा भी इसलिए मरता है
शेखर सिंह
मर्यादा, संघर्ष और ईमानदारी,
मर्यादा, संघर्ष और ईमानदारी,
डॉ. शशांक शर्मा "रईस"
उसे आज़ का अर्जुन होना चाहिए
उसे आज़ का अर्जुन होना चाहिए
Sonam Puneet Dubey
कोई इशारा हो जाए
कोई इशारा हो जाए
Jyoti Roshni
विश्वास कर ले
विश्वास कर ले
संतोष बरमैया जय
" लामनी "
Dr. Kishan tandon kranti
लोग जब सत्य के मार्ग पर ही चलते,
लोग जब सत्य के मार्ग पर ही चलते,
Ajit Kumar "Karn"
जख्म हरे सब हो गए,
जख्म हरे सब हो गए,
sushil sarna
बाल कविता: मोटर कार
बाल कविता: मोटर कार
Rajesh Kumar Arjun
श्वेत  बस  इल्बास रखिये और चलिए।
श्वेत बस इल्बास रखिये और चलिए।
संजीव शुक्ल 'सचिन'
Loading...