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26 Jun 2023 · 2 min read

पांचवी बेटी

पाँचवीं बेटी

प्यार याकि सम्मान मिला हो ,
मुझको याद नहीं है ।
हुई पाँचवीं बेटी मैं ,
यह मेरा दोष नहीं है ।

ध्वस्त हुआ मेरा जीवन जब ,
घर में आया भाई ।
बचे हुए मेरे बचपन की ,
मानो शामत आई ।

अच्छा भोजन ,अच्छे कपड़े ,
और खिलौने उसके ।
उसकी चर्चा , उसकी बातें ,
लाड – प्यार सब उसके ।

शाला भेजा गया उसे भी ,
बड़े ठाट थे उसके ।
घर की हर अच्छी चीजों पर ,
सारे हक थे उसके ।

उसके सारे खेल खिलौने ,
झाड़ू – पौंछा मेरे ।
उसके सारे सैर सपाटे ,
चौका – बर्तन मेरे ।

घोर तिरस्कृत और उपेक्षित ,
बचपन मेरा बीता ।
दबे पांव यौवन आया ,
उल्टी गागर सा रीता ।

चारों बड़ी बहन पहले ही,
घर से गईं भगाई थी ।
मुझसे कहते ब्याह हुआ है ,
उनकी हुई विदाई थी ।

आई अब मेरी भी बारी ,
बूढ़ा दूल्हा आया ।
मुझे जिबह करने को उसके,
संग था विदा करया।

आकर पता चला यह घर न,
सिर्फ कसाई – खाना था ।
वंश – वृद्धि की फिक्र लगी थी ,
औरत घर में लाना था ।

चार साल हल चला- चला कर ,
वह तो जैसे पस्त हुआ ।
उगा न अंकुर मेरे अंदर ,
उसका सूरज अस्त हुआ ।

विधवा और बांझ दोनों का,
बिल्ला मुझ पर लटक गया ।
रौरव – नरक सरीखे घर में ,
मुझको बेबस पटक गया ।

बचे हुए मर्दों ने मुझको ,
नौचा और खसोटा खूब ।
सब समाज ने ताने मारे ,
मरती क्यों न, जाकर डूब।

मर जाऊं , मैंने भी सोचा ,
मेरी अस्मत लुटी हुई ।
औरत नहीं वस्तु थी मैं तो ,
घरवालों से बिकी हुई ।

और एक दिन इक ग्राहक को ,
मुझ पर जरा दया आई ।
या उसकी आवश्यकता मुझको ,
उसके घर पर ले आई ।

मूल्य चुका कर उसने मेरा ,
मुझको घर पर लाया था ।
उसने सारी जरूरतों का ,
मुझ में ही हल पाया था ।

दो बूढ़े बीमार यहां थे ,
सेवा उन्हें जरूरी थी।
इस मकान को घर बनने को ,
औरत यहां जरूरी थी ।

वह औरत बनना इस घर में ,
तब मैंने स्वीकार किया ।
अपनी स्वतंत्रता के बदले ,
फिर बंधन स्वीकार किया ।

मेरे पत्थर दिल के अंदर ,
कुछ – कुछ नमी समाई थी ,
इस निर्वासित सी काया में ,
जीवन ने अंगड़ाई ली । …..

बात हुई वह बहुत पुरानी ,
मैं दादी , दो पोतों की ।
आंगन में किलोल करते उन ,
नन्हे बाल कपोतों की।

कहां बीत जाता सारा दिन ,
उनकी बाल – चिरौरी में ।
नहीं समझ आता मुझको कुछ,
फिरूँ खुशी से बौरी मैं ।

मेरे अपनों ने , समाज ने ,
विधवा ,बांझ कहा मुझको ।
चकले पर मुझ को बैठाया ,
बेच दिया था तब मुझको ।

किंतु भाग्य ने पलटा खाया ,
बनी सुहागन ,माता भी ।
मेरी गोदी बेटे खेले ,
खेल रहे हैं पोते भी ।

अब भी हैं , कितनी कुरीतियां ,
कितने बद् रिवाज़ फैले ।
ऊपर से उजले जो दिखते ,
उनके मन कितने मैले ।

इंदु पाराशर

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