ज़िंदगी से मुलाकात
इधर कहीं आसपास ज़िंदगी दिखी क्या?
मैंने उसे इसी तरफ़ आते हुए देखा था, तभी,
जब बागों में कलियां थीं चटकीं,
अमराई में देखना ज़रा -कोयल की कूक में, या,
आँगन में फुदकती नन्ही गौरैया में, देखना ज़रा –
ज़रूर से दिखेगी।
अभी -अभी यहीं से निकल कर गयी है, देखो ज़रा –
किसान के बहते पसीने में, हरे -भरे खेतों में,
सोने से गेहूँ की झूमती बाली में -मुस्कुराती मिलेगी।
भूखे की ख़ाली -ख़ाली थाली में उतर आये –
गोल-गोल रोटी के चाँद में तो देखना ज़रूर ही होगी।
कितने तो ठिकाने हैं जिंदगी के मिलने के,
कभी कोशिश करना इन्हीं में कहीं, तुम्हें जिंदगी मिलेगी,
मिले तो बताना कैसा लगा जब जिंदगी मिली,
मुलाकात से क्या-क्या सौगातें मिली….