हृदय द्वंद्व
दोहा गजल
नित्य किया अपना क्षरण ,बना रहा संबुद्ध ।
फिर भी अंतर्मन कहीं ,होता रहता युद्ध ।।1
नदी हृदय की द्वंद्व से ,माँग रही थी शोध ।
जा न सकी तल तक कभी ,बाहर मति परिशुद्ध ।।2
नहीं कभी स्थापित हुआ ,अंतर् से संवाद ।
मैं से चिंतन मार्ग बस ,रहा निरंतर रुद्ध ।।3
बदल रहा था वस्त्र मैं ,मिला नहीं गुरु-ज्ञान ।
निशि रूपी निष्ठा लिए ,अंतर्मन में युद्ध।।4
धर्म युध्द कर लूँ बड़ा ,ढोकर अपशय नित्य ।
विजय दिलाएँ पार्थ जो ,बन जाऊँ मैं बुद्ध ।।5
भाव कर्म निष्काम रत ,बंध कटे संपूर्ण ।
आत्मोन्नति की राह पर ,हृदय न हो अब क्रुद्ध ।।6
सदा सकारात्मक रहूँ,अनुशासन हो पाठ ।
मान क्रोध को दूर कर ,जगत बनूँ मैं उद्ध ।।7
डा. सुनीता सिंह ‘सुधा ‘शोहरत
स्वरचित
वाराणसी
16/1/2022