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27 Jan 2022 · 1 min read

महफिल मिला ना कारवां

हम तो अपनी हमसरी कुछ इस तरह ढूंढते रहे,आज तक अपना कहीं महफिल मिला, ना कारवां।

या खुदा जब भी तुम्हारी याद दिल को छू गई, दिल के इशारे ने चुने मोती खरे दरियाव के।

नाखुदा है समझ बैठा दरिया उसके आसरे,
लहरें उठी, साहिल डूबा, फिर नाव के संग नाखुदा।

यहां बागे बहारा में कहीं कोई गुल नहीं खिलता, कसम ले लो जहां भर की – यहां बस धूल मिलती है।

जोड़ कर देख लो लाखों तगाड़े तुल तिकड़म के,
ये करोड़ों के फसूँ नहीं साथ जाते हैं,
चाहे जो करो यारों जहां में जीने मरने को,
मगर होते ही आंखें बंद कफन तक छूट जाते हैं।

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