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22 Jan 2022 · 1 min read

ग़ज़ल:- नज़रिये देखने के गर बदल गये होते...

नज़रिये देखने के गर बदल गये होते।
दिलों की बात क्या पत्थर पिघल गये होते।।

ज़रा सा तुम भी जो पीछे पिछल गये होते।
लगा के सीने से हम भी उछल गए होते।।

बनाया होता नहीं हमको सख़्त जो इतना।
हर एक सांचे में हम भी तो ढल गये होते।।

न होते हम में हुनर धूल झोंक पाने के।
यहां के लोग तो जिंदा निगल गये होते।।

निकालते न हमें जिंदगी से तुम अपनी।
कहा जो होता हमही खुद निकल गए होते।।

चलो जी मिलके खिलाते हैं फूल गुलशन में।
ग़ुलों की ख़ुशबू से मौसम मचल गए होते।।

पिला भी देते तुम्हें ‘कल्प’ दूध हम अपना।
अगर त्रिदेव सरीखे बदल गये होते।।

✍ अरविंद राजपूत ‘कल्प’

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