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20 Sep 2021 · 2 min read

मैं पंछी बन उन्मुक्त गगन में

क्यो न पंछी बन उन्मुक्त ऊडू गगन में…
कभी कभी मन जब होता है एकाकी सा
तो उन व्यतीत करे उन क्षणों को जंगल के साथ
जी लेती हूँ कुछ हसीं पल जंगल पर लिख और
पढ़ने की कोशिश करती हूँ जंगल से अपने आप को

क्यो न पंछी बन उन्मुक्त ऊडू गगन में…
जंगल मे अपने अतीत की कहानी सी ढूंढती हूँ
जंगल मे उगती हुई सुबह का वो सुनहरा सा रंग देख
दोपहर की तेज तपन में छांव देती कोमल छाया देख
जंगल मे पथिक सी मैं स्ययं को राहत की छाया सी देख

क्यो न पंछी बन उन्मुक्त ऊडू गगन में…
पड़ो की पत्तियों का आपस मे वो मधुर स्पर्श
छू लेता हैं मेरे मन की उमंगों तरंगों को अंदर तक
जंगल के साथ व्यतीत उन क्षणों का संगीत याद आना
मेरे होठो पर खिले गुलाब-सी पंखुडी की सी मुस्कान

क्यो न पंछी बन उन्मुक्त ऊडू गगन में…
दिल मे एक उमंगित ध्वनि सी झंकृत सा करती हृदय को
जंगल मे कदमों की उन आहटों को सुनने सी मैं
टेढ़े मेढ़े उन रास्तों पर चल मैने अहसास महसूस किया
जिनकी मंज़िल एक थी राहें किन्तु अलग अलग सी हैं।

क्यो न पंछी बन उन्मुक्त ऊडू गगन में…
जंगल मे मानो आज ही उग आईं हो चाहे कंटीली झाड़ी जंगल की राहों पर सुंदर तितलियों के झुंडों देखना
देख जिन्हें देख मन में रंगों उन्मगों की मस्ती सी लगती
सज जाती है मंडराते हुए उनके पंखों की सुहारी छाप।

क्यो न पंछी बन उन्मुक्त ऊडू गगन में…
मुझे याद आ जाता है आज वही बिताया जंगल का समय
जिसको उस पड़ाव पर अनुभूत किया जब देखा जंगल
देख आई हूँ उस शाम की सुरमई सी सिहरन जंगल की
शाम जब श्रृंगार कर अपनी अलकों से जंगल का।

क्यो न पंछी बन उन्मुक्त ऊडू गगन में…
जंगल मे एक उन्माद से भरा तिलिस्म स्मृतियों का
जंगल मे पेड़ो से सज्जित अनन्त स्वप्न मखमली से पेड़
कब हरियाली ले जाते थे देख आई हूँ आज मैं जंगल मे
अब बिताए हुए क्षणों का उन्माद भरा जादू सा जंगल मे।

क्यो न पंछी बन उन्मुक्त ऊडू गगन में…
जंगल मे बिखरी हुई ओस की बूंदों से पेड़ो का वो श्रंगार
समाया हुआ वो पावन सौंदर्य पेड़ो की पत्तियों में श्रंगार
जब जब होता है सुहाना सा स्मितभरा प्रातः सा श्रंगार
सुहानी हो जाती है दिशाए ओर अदभुत अनुराग श्रंगार।

क्यो न पंछी बन उन्मुक्त ऊडू गगन में…
जंगल मे इन्द्रधनुषी रश्मियों के रंगों से रंगा हुआ अनुराग
समाया आज वो सुहाना सफर मेरे मन के किसी कोने में
ईश्वर की लीला ही न्यारी देखी जंगल मे मंगल हर कोने में
कितना सुहाना रहा सफर गुजरना जंगल के हर कोने से।
डॉ मंजु सैनी
गाज़ियाबाद

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