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12 Aug 2021 · 9 min read

कल्पित ०३

1. पितृ परमेश्वर

गिरिराज होते जहाँ नतशिर
जगन्नियन्ता के है जो अरदास
महारथी है वो , सारथी भी
ख्वाहिशों के है सरताज

ख्वाबों के हैं चिन्त्य कायनात
मशरूफ़ियत मकुं फौलाद सरीखे
जीवन पर्यन्त अजूह स्कन्ध स्तम्भ
महाच्छाय अहर्निश कुटुम्ब किमाम

सकल दिव्यता सन्तति तात
तालीम ड्योढ़ी विरासत दामन
मुखरित हुँकार प्रखर नहीं
मुआफ़कत नय वृहत नाज

सान्त्वना सहचर अचिर विधु
ज़मीर व्यञ्जना निध्यान पन्थी
निर्व्याधि फरिश्ता अनुगृहीता हम
गोरवन्त गरिमा विप्लव भीरुता

चक्षु सैलाब विहङ्ग मञ्जरी
चिराग दीप्तिमान् उज्ज्वल धरा
परिणति सर्वेश्वर नियत रहबर
पितृसत्तात्मक अधिष्ठाता खलक

2. मैं मिल्खा हूँ

गिरी का दहाड़ नहीं
मैं सागर की धार हूँ
देश की तवज्जोह ही
मैं चेतक मिल्खा हूँ

कौन जाने मशक्कत मेरी ?
श्रमबिन्दु कलेवर जज़्बा
अभ्यस्त सदा हयात यदि
अक्षय नायक पथ प्रशस्त

न्योछावर मेरी इस ज़मीं
तामरस मुक्ता अब्धि नभ
खिरमन के उस सौगात
महासमर कुसुम कली नहीं

अशक्ता ही मेरी पुरुषार्थं है
पराभव नहीं , अभिख्यान दस्तूर
स्पर्द्धा मन्वन्तर साहचर्य रहा
अवलुञ्चित सौरभ मधुराई

मेरी इतिवृत्त की दास्तां ऋक्
तालीम कर , कायदा शून्य
तरणि प्रभा उस व्योम का
मुक़द्दर मीन मैं उस नीरधि

3. माँ की पीड़ा

मुफलिस माँ की पीड़ा
जग में समझे कौन
रोती – बिलखती सदैव
एक रोटी , शिशु के लिए

आसरा नहीं किसी का
इम्दाद की चाह भी नहीं
बुभुक्षित शिशु को देखके
अंतर्भावना प्रज्ज्वलित उठती

अपने वक्षस्थल के दहन से
नियति का अपकृष्टता क्या ?
भूख मेरी कमजोरी नहीं
बस शिशु मेरे भूखें न हो

कराहने का दिलकशी नहीं
बस एक रोटी , तकदीर में नहीं
न जाने क्या होगा अञ्जाम
है सत्यनिष्ठा कर्तव्य मेरी शक्ति

माँ की आह्लाद का क्या सङ्गम !
बच्चें की जुहु क्रन्दन आश्रुति हो
माँ की सच्चिदानन्द प्रीति महिमा
अंजलिबद्ध आस्था आकांक्षा है

4. अक्षुण्ण

क्या गारूड़ गो सपना थी !
चेतन मन उस अम्बर में
भवसागर पार चक्षु सुमन में
त्रास – सी आलम्बन थी

वास्तविकता का सूरत नहीं
मुस्तकबिल वारदात इङ्गित है
अभिवेग परिदृश्य नादिर ही
शून्यता शिखर गाध नहीं

बिन्दु से अक्षुण्ण अनुज्ञा ही
प्रहाण गर्दिश रेणु है
व्योम द्विज परवाना नश्वर रहा
पौ फटा आमद प्रत्याशा है

ओझल विभा तिमिर नहीं
मृगतृष्णा का इन्द्रियबोध दीप्ति
सारङ्ग तारिका का अनन्ता
आकर्ष तमन्ना उस नग में

त्रिधरा नजीर इन्तिहा भव
तिमिस्त्रा का खद्योत ऊर्मि
गर्व – अग्नि विकट इस धारा का
प्रीति विभूति की अरमान नहीं

5. ज्ञानशून्य त्रिकाल

मौन क्यों है विश्व धरा ?
रुग्णता का सर्वनाश कर
परिहार का कलश भरा
यन्तणा नहीं , वफ़ात रहा

शून्यता की बटोही नहीं
कोलाहल भरी ज़िन्दगानी है
तमगा तामीर पुहमी परसाद
महफ़िल समाँ अख्तियार रहा

तृष्णा लश्कर हाट जहाँ
व्यभिचार घात साया है
आतप का वैभव प्रचण्ड
काश्त कल्लर गुस्ताख़ रहा

हीन क्षुधा निराहार विषाद
किल्लत निघ्न आरोह अभिताप
निश्छल नहीं , प्रतारक परजा
पाशविक तशरीफ आलिङ्गन क्यों ?

क्या प्राच्य दस्तूर थी ! अब है क्या ?
झषाङ्क दिलकशी दर्भासन है
दुनिया के चलचित्र आख्यान में
उच्छिन्न हो रहा ज्ञानशून्य त्रिकाल

6. पारावार

घेर – घेर रहा उस नभ को
शिथिल नहीं , उग्र है
भानु मृगाङ्क मद्धिम क्यों ?
क्या प्रतिघात है नीरद का ?

कोई अपचार तो नहीं !
या दिवाभीत प्रकाण्ड क्या ?
गिरी का तुगन्ता न देख
देख पारावार की विरक्ति

व्यामोह अनुराग परवरिश है
मनोवृति समरसता वालिदा जग
निर्झरिणी वामाङ्गिनी जिसका
अभिवाद नित करती उस भूधर

त्रिशोक है कलित अलङ्कृत
प्रसून कानन मञ्जूल दिव्य
निदाघ अनातय का आलम नहीं
मेह ज्योतित आधृत जलावर्त

शून्यता प्रलय निराकार नहीं
क्षुब्द भरे मही प्राज्ञता निरामय
हलधर का ही सम्भार रीति
तनी महरूम पीर समझें कौन ?

7. क्या इत्तेफ़ाक है ?

क्या इत्तेफ़ाक है जीवन शहर का ?
मुलाज़मत के बिना आमद नहीं
कर्तव्यों के बिना कुटुम्ब नहीं
क्या कहूँ इस गरोह पटल का ?

यथार्थ – मिथ्या का दोष नहीं
अपरती ही अशरफ़ मक़ाम
पुरुषार्थ ही आफ़त का धार
शाकिर सतत् प्राज्ञता सिद्धि ध्येय

उलझन स्याही में प्रदीप नहीं
निर्वाह का आघात यहाँ भी
कर्मण्य रहो , नदीश पतवार – सा
अचल अविनाशी है वो भी तुङ्ग

महासमर जीवन का सार तत्त्व
अभिजीत – अपमर्श संशय यहाँ
जयश्री अवधार दुसाध्य यहाँ
प्रारब्ध इत्तेफ़ाक उद्यम ऐतबार

साक्षात् शिखर पुरुष अनल ऊर्जा
इन्द्रोपल पारगमन कमल नयन
दूभर नहीं कुछ , है आवर्त अखण्ड
चित्तवृत्ति अथक अनुरञ्जन उदय

8. आलिङ्गन

जीवन नहीं , सृष्टि साक्षात्
द्विज अम्बर वामा अनुराग
वात्सल्य जलधि अखण्ड प्रवाह
विरह – मिलन किरीट धरणी

शगल गुलशन आमोद मीत
बहार कलिका पुहुप वेला यहाँ
अस्मिता पैग़ाम कर्तव्यनिष्ठ
अवसान नहीं , अगाध दिव

निराकार तुन्द में होरिल इस्लाह
सारङ्ग नहीं , विहङ्गम तरङ्ग
प्रतिच्छाया का इम्तिहान नहीं
इम्दाद प्रियतम अभिभूत सुरभि

मृगाङ्क इन्दुमती तारिका अभ्यन्तर
आभामय मुक्ता , शून्य ज्योति
तिमिर वनिता आवर्तन अनीश
आबरू पराकाष्ठा रजत व्योम

आसरा वामल मरीचि धनञ्जय
अजेय ध्वजा सऋष्टि आलिङ्गन
अनुरक्ति मेल , आविर्भाव प्राण
सर्वदा आयुष्य भँवर रीति पतङ्ग

9. हैवान क्यों ?

जात – पात का विष दंश
अस्पृश्य – लिहाज व्याल दृश
मवेशी साम्य निस्बत रहा
मानुष डङ्गर विदित क्यों ?

बिराना इंसान हैवान क्यों ?
आत्मग्राही आक्षिप्त नृलोक
हत प्रमाथ देहात्मवाद जहाँ
पाखण्ड अनाचार हर्ज अंजाम

आमिल दर्प – दमन आबरू
अभिवास रहा दज्जाल भव
मुलजिम नहीं , वो मनीषी है
महाविचि – करम्भबलुका कृतान्त मही

मानवीयता मातम करहा रही
मदीय व्यथा समझें कौन ?
सम्प्रति भव्यता में है अभिमर्षण
आत्मीय में हो रहा द्वेष – घृणा

विभूति बुभुक्षा जग – संसार
कर रहें क्यों हयात – चित्कार ?
त्राहिमाम – त्राहिमाम करता भव
ईश्वर नहीं , अनीश्वर अक़ीदा

10. पहली बूँदें

सावन की पहली बूँदें
जब पड़ती है धरा पर
लहर उठती इस मही से
सीलन कोरक प्रतिमान

उमङ्ग भरी व्योम धरा सिन्धु
प्रसून मञ्ज़र मन्दल प्रस्फुटित
आदाब कर उस तुङ्ग व्योम को
अभ्युन्नति हो इस गर्दिश सुन्द

खलक तञ्ज मे श्वास का खौफ
क्यों निर्वाण हो रहे हरित धरा ?
प्रभूत अतृप्त तृष्णा क्यों जहाँ ?
प्रसार नहीं , है यह सर्वनाश

सुनो , जानो , समझो इस धरा को
सतत वर्धन दस्तूर साहचर्य रहा
मुहाफ़िज़ खिदमत कर अभिसार का
देही प्राणवायु इन्तकाल को बचा

निजाम फरमान हुक्मबरदारी कर
अंगानुभूति जन को अग्रसर कर
निलय – निकेतन पर्यावरण जहाँ
वैयक्तिक जीवन्तता वसुन्धरा वहाँ

11. क्षिति प्रभा

चिड़ियाँ आया चिड़ियाँ आया
साथ में एक खिलौना लाया
क्या करूँ इसका , क्या करूँ ?
खेलों या इसको तोड़ दूँ

मत देखो उस नभ में
क्या नीली – सा अम्बर धरा है
कहीं चिड़ियाँ की चूँ की राग
सुरीला मधुर मनोरम – सा

कितना प्यारा अम्बर घना है !
मेघ का आसरा क्यों है जहाँ ?
झमाझम करती वर्षा पानी
हलदर का अद्भुत उल्लास है

इन्द्रायुध की क्या है करिश्मा !
व्योम सप्तरङ्गी विश्व धरा है
भाविता का तिमिर यामिनी
चौमासा का भी इस्तिक़बाल है

हरीतिमा का सुन्दर जग यहाँ
क्षिति प्रभा का आबण्डर है
द्रुतगामी समीर वारिद नभ
त्रास – सी मेदिनी तृप्त करती

12. बन जाऊँ होशियार

मुझे मञ्जुल चन्दा ला दो
मुझे लालिमा सूरज ला दो
ला दो सारा जहाँ – संसार

खेल सकूँ हम , झूम सकूँ हम
कर सकूँ हम बड़े नाम
मिताली बनूँ , बन जाऊँ नेहवाल

मुझे खिलौना नहीं है लेनी
ला दो कॉपी – किताब – कलम
लिखूँ – पढ़ूँ बन जाऊँ होशियार

मुझे मेला घूमना नहीं है कभी
घूमना है प्राचीन सङ्ग्रहालय
सकूँ देख प्राचीन गौरव गाथा

मुझे दास्तां नहीं सुननी आपकी
सुननी है देश का समूचा इतिहास
जान सकूँ देश का अद्भुत ज्ञान

जन्मदिन नहीं मनाएंगे हम कभी
लगाएंगे उसी दिन एक गुल्म पेड़
लेंगे हम ऑक्सीजन हमेशा भरपूर

शहर में रहेंगे नहीं हम कभी
हम रहेंगे अपने रम्य देहात में
खाएंगे हम आम लीची अमरुद

13. पूछूँ मैं क्या ?

अंतः करण का सन्ताप नहीं
आहलाद का अभिनन्दन है
लोक जगत का पूछूँ मैं क्या ?
पीतवास आपगा सायक है

होता ख़ुदग़र्ज़ी रङ्क जहाँ
नृशंसता ब्योहार का बहार
रुग्णता उपघात समावेश यहाँ
निवृत्त विराना आश्लेष इज़हार

सङ्कुचित रहा प्रवाहमान सरिता
दिनेश निदाघ दिप्त – प्रचण्डमान
अनागत अनाहार अनधिकारिता
तवायफ़ उलफत जग अंघ्रिपान

अनात्मवाद अक्षोभ होता बेजान
चण्ड – दहन अभिहार ईप्सा
अकिञ्चन तिमिर वैताल अग्यान
अवहत अवसान परीप्सा – प्सा

उद्विग्नता प्रतिशोध प्रतिघात ज्वाला
विकृति विकार प्रलोभन आहत
देही – अलूप वजूद भी दीवाला
निपात जगत हो रहा अतिहत

14. स्वच्छन्द हूँ

रोटीं नहीं धरा चाहिए
परवश नहीं स्वच्छन्द हूँ
निर्वाण नहीं प्राण चाहिए
पद्याकर कलित अम्बुज हूँ

मानव हूँ कल्पित काया नहीं
आन – बान – शान की प्रभुता मेरी
कोरक प्रसून हूँ मुस्तकबिल काहीं
दिव्य व्योममान उन्मुक्त कनेरी

कोकिला का वसन्त नाद हूँ
नखत अम्बुद क्षोभ विराम
शुन्यता अनश्वर गात हूँ
नैसर्गिक तरणि प्रबल अभिराम

पारावार का अभरम प्रवाही
दलक घोष अतृप्त नीर
अप्रगल्भ जलार्णव अम्बुवाही
सदा उठान हिल्लोल अशरीर

नीर व्योम धरा स्वच्छन्दता
ओज प्रकृतिमान भव्य भव
कणिका प्रकीर्णक इन्द्रच्छन्द
जीवन वृति आविर्भाव प्रभव

15. वो घड़ी

लौटा दें मुझे वो घड़ी
बचपन हमार हो जहाँ
माँ के हाथों की वो छड़ी
बच्चों का झुण्ड हो तहाँ

नदियों की वो पगडण्डी
उछल – उछल कूद – कूदकर
जहाँ शैतानों की उद्डण्डी
खेल – खेल में हो निकर

पाठशाला में होता आगमन
आचार्यों का मिलता बोधज्ञान
शागिर्दं कर जाता समधिगमन
सदा हो जाता वो महाज्ञान

अभिक्रम का रहता प्रयोजन
कुटुम्ब प्रताप का है अपार
मञ्जूल प्राबल्य हयात संयोजन
ज़िन्दगानी का यहीं अपरम्पार

कलेवर का हो जाता इन्तकाल
पञ्चतत्वों में समा जाता प्राण
तपोकर्मों का आदि अंत त्रिकाल
सृष्टिकर्तां में समा जाता अप्राण

16. मैं तरफ रही

मैं तरफ रही अपनी काया से ,
मेरी कराहना क्यों नहीं सुन रहें ?
मैं अधोगति की कगारे हो रही ,
मैं और कोई नहीं , पर्यावरण हूँ ।

मत काटो मेरे तरुवर छाया को ,
क्या बिगाड़ा है तेरा मनुज !
जीने क्यों नहीं देते मुझे ?
मेरी अपरिहार्ता तू क्या जानो ?

जीवों का आस है जहाँ ।
हयात इन्तकाल क्यों कर रहे ?
समभार का आत्मविस्मृत द्रुम ,
जियो और जीने दो सदा जहाँ ।

मत करो पर्यावरण का उपहास
क्यों कर रहे हो खिलवाड़ ?
रक्तस्त्राव का गात प्रपात
अब न करो मेरी दाह संस्कार

हरीतिमा ध्वस्त , हो रहा विकराल
पानी की है अकुलाहट अब जहाँ
किल्लत होगी ऑक्सीजन की
दुनिया का होगा हयात इन्तकाल

17. दो पैडेल

दो पहलूओं जीवन के
साइकिल के है बुनियादी रूप
दो पैडेल के करीनों से
अग्रसर रहने का सन्देश देती

पथिक की पथ की काया
निर्मल करती मलिन डगर
सहचर रहती सदा हमारा
सतत् पोषणीय की धारणा

उज्ज्वल हो हमार परिवेश
करती रहती सदा हर काम
न थकती न उफ़ करती
बढ़ती चलती हमार कदम

चौकस करती अचेतन मन को
ट्न – ट्न की स्वतः नाद से
रहो साथ हमारे प्रगतिशील
जन – जन तक पहुंचाती पैगाम

सादगी आसरा अलम्बित सदा
पुनीत करती गरोह हमार
प्रभञ्जन रफ़ाकत सदा
पाक करती विश्वपटल राज

18. साधना

कर साधना ऐ मुसाफिर
जलसा से हीं पृथक हो जा
अर्जुन की गाण्डीव तू बन
बन जा श्री कृष्ण सुदर्शन

महासमर के डगर पर सदा
व्योम की उस अनन्त तक
रख आस सत्यनिष्ठ कर्तव्य की
कामयाबी की उस बुलन्दी को छू

रह अचल उम्मीदों को रख
समय का पाखी तेरे पास
वक्त की अहमियत आलोक
गुमराह न होना अपने पथ से

शून्यता की नभ को न देख
चढ़ जा उस अगम नग पर
ख्वाबों की जञ्जीरों से
अपनी महत्वाकांक्षा समझ

ब्योहारों के बयारों सङ्ग
इसरारों का उर बाड़व रख
मुकद्दर का प्रभा गगन है
हौंसला का अवदान तेरे पास

उन्मादों का हैं दास्तां जहाँ
सत्य राह पर चल सदा
ज़िन्दगी का यहीं मकसद जहाँ
विजय का भी माधुर्य सदा

19. क्षितिज

मन्द – मन्द बयारों के झोंके
अंतः करण को विचलित करती
विहग की कूजन नाद
झङ्कार – सी हिलकोरे करती

मधुमास आमद परिपेश
नैसर्गिक उछाह भरती
नवपल्लव कुसुम प्राघूर्णिक
व्योम – धरा आदाब करती

निदाघ तीप्त तरणि धरा
अंशुमान करता क्षितिज कगार
जग – आतम का सम्भार जहाँ
यामिनी मृगाङ्क की निगार करती

घनघोर अम्बू प्रदीप मुकुल
दिव्योदक सौन्दर्यं प्ररोह धरा
ताण्डव घनप्रिया हुँकार
उद्दीप्तमान हसीन अवनि आलम

अघम संवेगहीन अनी अहवाल
भावशून्य शिथिल पड़ जाती जहाँ
दहल उठती रुह की काया
वहीं अरुणिमा समरसता सानन्द

20. मैं क्या कहूँ

मैं क्या कहूँ इस धरा को ?
प्रकृति का मनोरम दृश्य जहाँ
हरेक जीवन का बचपन है
नटखट नासमझ अल्हड़ – सा

प्रकृति की सुन्दरता अत्योत्तम
पर्वत नीड़ सागर हरियाली जहाँ
पर्वत की विलासिता को देखो
वृहत दीर्घ तुङ्ग गगनचुम्बी धरा

उस स्वच्छन्द परिन्दा को देखो
नौकायन सौन्दर्य सरिस कान्ति
मनुज से इस्तदुआ है मेरी
प्रभाहु है , प्रबाहु रहने दो मुझे

पारावार वसुधा की प्रदक्षिणा
पुनीत – मञ्जुल – दर्प – वालिदैन
ज़िन्दगानी अनश्वर कलेवर
मतहमल प्रवाहशील अनाशी

जीवन वृतान्त हरीतिमा तश़रीफ
आलिङ्गन करती सारङ्ग पावस
नभचर का आशियाना जहाँ
आतम अचला आलम्बन

प्रभाकर प्रीतम उज्ज्वल प्रभा
पराकाष्ठा प्रतीतमान प्रभुता
प्रदायी कर्ण कृर्तिमान वजूद
चक्षुमान अखिलेश्वर वसुन्धरा

सुधांशु सौम्य व्योम निलय
कालचक्र उद्दीप्तमान प्रकृति
सौरजगत आबोहवा पद्निनीकान्त
शशिपोशक अपरपक्ष कान्तिमय

21. दास्तां

इतिवृत्त का क्या सुनूँ मैं ?
गुलामी की जञ्जीर जहाँ ।
कोई औपनिवेशिक होते देखा
किसी को उपनिवेश धरा ।

साध्वी वनिता का यन्त्रणा
ज्वाला में धधकते देखा ।
अस्पृश्यता व सहगमन का
कराहेना का नाद देखा ।

ताण्डव छाया हाशिया का
अपनों का अलगाव देखा ।
क्या कहूँ उन दास्तां को ?
दासता क्लेश उत्पीड़न देखा ।

त्रास – सी दुर्भिक्ष काल का
सियासत आर्थिक सङ्कट देखा ।
सम्प्रदायों का बहस – मुबाहिसा‌ को
मानवीयता घातक हनन देखा ।

रक्तरञ्जित कुर्बानियों की दास्तां
वतन पे प्राण निछावर होते देखा ।
विरासत – संस्कृति – धरोहर प्रताप
फिरङ्गीयों का परिमोश होते देखा ।

22. वेदना – सी

वेदना – सी मुस्कान क्यों ?
क्यों है कुण्ठित काया ?
क्या छुपा है भग्नहृदय में ?
सतत् क्लिष्ट है आह्निक

अवसाद तड़पन का भार
वहन क्यों कर रहे ?
व्याल का संहार है क्या ?
आफत का मीन जहाँ

महिमामण्डित दुनिया में
महासमर का बेला है
त्रास का विषाद क्यों ?
कर्कश का आतप जहाँ

निबल – सा अनिभ्य कलेवर
खुदगर्ज का अपारा है
अभ्यागम का आसरा कहाँ
मृगतृष्णा का आवेश जहाँ

मक्कारी का उलझन है
मन्दाक्ष का जमाना नहीं
अपहति रहा आदितेय का
नृशंसता – सा इफ़्तिख़ार नहीं

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