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31 Jul 2021 · 2 min read

गिरगिट

गिरगिट/लघुकथा
रमेश ‘आचार्य’
सावन का महीना उत्सवमय हो चला था और भक्ति में डूबे कांवड़िये महानगर में अपनी छटा बिखेर रहे थे। काॅलोनी की सोसायटी वालों ने भी शिवभक्त कांवड़ियों की सेवा के लिए शिविर लगाया हुआ था। अभी जलाभिषेक में चार दिन बाकी थे और कांवड़िओं का शिविर में आना-जाना लगा हुआ था। श्रद्धालुओं की भीड़ उनके दर्शन हेतु उमड़ रही थी। कोई उन्हें फल खिला रहा था, तो कोई पकवान, और कोई तो हाथ-पैरों में आई चोटों के लिए दवाई दे रहा था। सभी उनकी सेवा-सुश्रूषा में भक्तिभाव से जुटे हुए थे। मिसेज शर्मा भी शिवभक्तों के दर्शनार्थ शिविर में दाखिल हुई। सहसा उस दृश्य को देखकर मानो उनकी पैरों तले जमीन ही खिसक गई हो। उनकी ही ब्लाॅक की औरतें उस ‘लफंगे’ को घेरे खड़ी उसकी सेवा-टहल कर रही थी जिसने गत दिनों पहले ही उनकी लड़की को रात के वक्त पकड़ा था जब वह घर आ रही थी। तब इन्हीं औरतों ने कहा था, कि ‘‘मिसेज शर्मा, घबराइए नहीं, जैसी आपकी लड़की वैसी हमारी लड़की। इस लफंगे को अब सबक सिखाना ही पडे़गा।‘‘
वह लफंगा मंद-मंद मुस्कुराता हुआ एक कुशल किस्सागो की भांति अपनी कांवड़ यात्रा की गाथा सुना रहा था। तभी वहीं औरत जिसने उस दिन इस लफंगे’ को सबक सिखाने का बीड़ा उठाया था, बोली’-‘‘ भई, कुछ भी कहो, आज इसने हमारी काॅलोनी का नाम रोशन कर डाला।’’ वहां खड़ी सभी औरतों ने फिर ‘हां’ में सिर हिलाया। लेकिन जैसे ही उनकी नजर कोने पर खड़ी मिसेज शर्मा पर पड़ी तो वे सभी बगले झांकने लगीं। मिसेज शर्मा को वे सभी औरतें उस लफंगे से भी बड़ी गिरगिट नजर आ रही थी।

ईमेलः acharyasharma2014@gmail.com
नोटः उपरोक्त ‘गिरगिट’ नामक रचना मौलिक है।

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