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6 Feb 2021 · 1 min read

जिंदगी कब तक तू

जिंदगी तू कब तक मेरे बचपने को छलेगी
कब तक शमाँ बनकर यूँ अंधेरो में जलेगी

तेरी शान इसमें है की तू चुपचाप सुधर जा
वरना मौत की वारदातों में तू हाथ ही मलेगी

देख कृष्ण के धुन पर सुदामा भी नाच गया
हम फकीरो के आगे तेरी दाल भी नहीं गलेगी

कब तक पाले हमको बुजुर्ग बच्चा समझकर
खुद को निखार लें वरना आसुंओं में जा ढलेगी

जिस दिन लगेंगे तुझको भी दो चार सदमें
तू फिर खुद ब खुद ही सही रस्ते पर चलेगी

बहुत सताती है भूख बनकर तू पेट में हमकों
पर तेरी यह पाप की नाव बता कब तक चलेगी

जिस दिन मिल गया मुझे भी मौत का कारवाँ
उस दिन तरसेगी अशोक को और मौत से जलेगी

अशोक सपड़ा की कलम से दिल्ली से

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