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10 Oct 2020 · 1 min read

साथ चलने से जब रहनुमा रह गया

साथ चलने से जब रहनुमा रह गया
दूर मंज़िल से वो क़ाफ़िला रह गया

घर मेरा तो सजा का सजा रह गया
ज़ीस्त में बिन तेरे क्या मज़ा रह गया

कोशिशें उसको लेकिन मनाने की थीं
है न मालूम क्या जो गिला रह गया

आपको और नज़दीक आना अभी
अब ज़रा सा ही तो फ़ासला रह गया

रात बस्ती जली , क्यों जली , क्या ख़बर
झौंपड़ी में ‘दिया’ इक जला रह गया

मुफ़लिसों से किये जिसने वादे बहुत
मुफ़लिसों को वही रौंदता रह गया

वो गया छोड़कर रौशनी इल्म की
उसको सारा जहां देखता रह गया

जो जिया है सदा दूसरों के लिये
नाम उसका दिलों पर खुदा रह गया

दिख गये वो अचानक मुझे सामने
वक़्त ‘आनन्द’ जैसे थमा रह गया

– डॉ आनन्द किशोर

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