हिंदी की उपेक्षा, मानसिक गुलामी
भाषा किसी भी समाज की पहचान, संस्कृति और बौद्धिक विकास का आधार होती है। किसी भी देश की प्रगति उसकी मातृभाषा में ज्ञान, विज्ञान और प्रशासनिक सुदृढ़ता पर निर्भर करती है। लेकिन यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि भारत में, जहाँ हिंदी सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा है, वहीं उसे शिक्षा, न्याय और प्रशासन में वह स्थान नहीं मिल पाया, जिसकी वह हकदार है।
आज़ादी के 77 साल बाद भी हिंदी को ‘राजभाषा’ का दर्जा तो मिला, लेकिन ‘राष्ट्रभाषा’ का नहीं। इसका परिणाम यह है कि भारत में अंग्रेजी का आधिपत्य अभी भी कायम है। न्यायपालिका, उच्च शिक्षा, प्रशासन और विज्ञान जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्रों में हिंदी की स्थिति द्वितीयक बनी हुई है।
आज भी कोर्ट में याचिका हिंदी में स्वीकार नहीं होती, मेडिकल और इंजीनियरिंग की पढ़ाई हिंदी में उपलब्ध नहीं है, और सरकारी दफ्तरों में अंग्रेजी प्राथमिकता पर रहती है। डिजिटल युग में भी हिंदी को सीमित कर दिया गया है, जहाँ अधिकांश आधिकारिक वेबसाइटें और दस्तावेज़ अंग्रेजी में ही मिलते हैं।
विडंबना यह है कि जिस देश की 57% से अधिक आबादी हिंदी बोलती और समझती है, वहाँ हिंदी दिवस मनाने की ज़रूरत पड़ रही है। यह स्वयं इस बात का प्रमाण है कि हिंदी को अब भी संघर्ष करना पड़ रहा है। सवाल यह है कि हिंदी की यह स्थिति क्यों बनी हुई है और इसे कैसे बदला जाए?
अब समय आ गया है कि हम भावुकता से परे हटकर वैज्ञानिक, आर्थिक और प्रशासनिक दृष्टिकोण से इस मुद्दे का विश्लेषण करें और हिंदी के सशक्तिकरण के लिए ठोस कदम उठाएँ।
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भाषाई शोध और आंकड़ों की नजर में हिंदी की स्थिति
1. संविधान और न्यायपालिका में हिंदी की स्थिति
संविधान के अनुच्छेद 343 में हिंदी को राजभाषा घोषित किया गया, लेकिन न्यायपालिका और उच्च शिक्षा में इसका क्रियान्वयन सीमित रहा।
1965 के राजभाषा अधिनियम में हिंदी को बढ़ावा देने की बात हुई, लेकिन अंग्रेजी को भी जारी रखने का निर्णय लिया गया। इसका परिणाम यह हुआ कि हिंदी द्वितीयक भाषा बनी रही।
सुप्रीम कोर्ट और 18 उच्च न्यायालयों में हिंदी में बहस या याचिका दायर करना संभव नहीं है।
2018 में गृह मंत्रालय ने संसद में बताया कि “भारत के 60% से अधिक लोगों की मातृभाषा हिंदी होने के बावजूद न्यायपालिका में इसका प्रयोग सीमित है।”
2. शिक्षा और रोजगार में हिंदी की स्थिति
यूनेस्को (UNESCO) की रिपोर्ट “The Language Issue in Education” के अनुसार, मातृभाषा में शिक्षा ग्रहण करने वाले बच्चे अधिक सफल होते हैं।
फिर भी, IIT, IIM, AIIMS जैसी संस्थानों में 90% पाठ्यक्रम अंग्रेजी में हैं।
हार्वर्ड बिजनेस रिव्यू (Harvard Business Review) के अनुसार, मातृभाषा में काम करने वाले कर्मचारियों की उत्पादकता 30% अधिक होती है।
भारत में बड़ी कंपनियाँ और सरकारी नौकरियाँ हिंदी भाषियों के लिए कम अवसर प्रदान करती हैं, जिससे हिंदी भाषी प्रतिभाओं को नुकसान उठाना पड़ता है।
3. तकनीकी और डिजिटल दुनिया में हिंदी का स्थान
गूगल, माइक्रोसॉफ्ट और अमेज़न जैसी कंपनियाँ अब हिंदी एआई और वॉयस असिस्टेंट पर जोर दे रही हैं।
2021 में Google India ने बताया कि भारत में 60% इंटरनेट उपयोगकर्ता हिंदी को प्राथमिकता देते हैं, फिर भी आधिकारिक वेबसाइटें और सरकारी सेवाएँ अंग्रेजी में ही उपलब्ध हैं।
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वैज्ञानिक दृष्टिकोण: हिंदी का उपयोग क्यों जरूरी है?
1. मस्तिष्क और भाषा अधिग्रहण
मनोवैज्ञानिक और भाषा वैज्ञानिक Noam Chomsky के अनुसार, मातृभाषा में शिक्षा ग्रहण करने से गहरी समझ विकसित होती है और रचनात्मकता बढ़ती है।
हिंदी भाषियों को अंग्रेजी में शिक्षा ग्रहण करने से Cognitive Load अधिक बढ़ जाता है, जिससे उनकी सीखने की गति धीमी हो जाती है।
2. अर्थव्यवस्था और व्यापार में हिंदी का योगदान
भारत की व्यापारिक कंपनियाँ मुख्यतः अंग्रेजी में कार्य करती हैं, जिससे हिंदी भाषियों के लिए अवसर सीमित हो जाते हैं।
हिंदी में काम करने से ग्रामीण और शहरी बाजारों में व्यापार का विस्तार हो सकता है, जिससे अर्थव्यवस्था को लाभ मिलेगा।
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समाधान: हिंदी को पुनः सशक्त बनाने के लिए क्या किया जाए?
1. न्यायपालिका में हिंदी को अनिवार्य बनाया जाए।
सुप्रीम कोर्ट और उच्च न्यायालयों में हिंदी अनुवाद की व्यवस्था हो और हिंदी में याचिकाएँ दायर करने की अनुमति दी जाए।
2. तकनीकी और उच्च शिक्षा में हिंदी का विस्तार किया जाए।
IITs, IIMs, AIIMS और अन्य संस्थानों में हिंदी में पाठ्यक्रम उपलब्ध कराए जाएँ।
“अनुवाद एवं भाषा तकनीकी संस्थान” की स्थापना हो, जो विदेशी ज्ञान-संसाधनों को हिंदी में उपलब्ध कराए।
3. प्रशासन और सरकारी कार्यों में हिंदी की बाधाएँ हटाई जाएँ।
रेलवे टिकट, कोर्ट फॉर्म, सरकारी पोर्टल आदि को हिंदी में सहज और अनिवार्य बनाया जाए।
4. बाजार और डिजिटल दुनिया में हिंदी को बढ़ावा दिया जाए।
बड़ी टेक कंपनियों और ई-कॉमर्स प्लेटफॉर्म (Amazon, Flipkart) को हिंदी में सेवाएँ देने के लिए प्रोत्साहित किया जाए।
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हिंदी दिवस औपचारिकता न बने
हिंदी दिवस तब तक औचित्यहीन रहेगा, जब तक हिंदी शिक्षा, न्याय, प्रशासन और रोजगार में प्राथमिकता नहीं पाती। हमें हिंदी को सिर्फ भावनात्मक रूप से नहीं, बल्कि वैज्ञानिक, आर्थिक और प्रशासनिक दृष्टि से सशक्त करने की जरूरत है।
जिस दिन हिंदी अपने देश में संवाद और शक्ति की भाषा बन जाएगी, उस दिन हिंदी दिवस मनाने की आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी।
हमें हिंदी को केवल भाषा नहीं, बल्कि अपनी पहचान का हिस्सा बनाना होगा।