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7 Sep 2020 · 3 min read

फुलपैंट

रवि कांत चौबे जी १९६६ में जब कोलकाता राजनीति विज्ञान में स्नातकोत्तर की पढ़ाई के लिए आये, तो कुछ दिन अपने रिश्तेदार के पास बैरकपुर में रहे। वहाँ से प्रेसीडेंसी कॉलेज आने जाने में काफी वक्त लगता था, इसलिए कॉलेज के पास ही राजेन्द्र छात्र भवन ,जो भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद जी की अभिप्रेरणा से बना था, में थोड़ी भागदौड़ के बाद प्रवेश ले लिया।

भाई साहब के रूम मेट बन कर रहने लगे। पहनावा अभी भी गांव वाला ही था, कुर्ता और चौड़ा पायजामा, कोलकाता आकर एक कपड़े का बैग भी बाँह पर झूलने लगा जो उस वक़्त बुद्धिजीवी होने की निशानी मानी जाती थी। हाँ ,उन्होंने दाढ़ी नहीं बढ़ाई थी, दुनिया से इतने भी नाराज नहीं थे तब तक। मतलब पूरे बुद्धिजीवी नहीं बने थे।

चौड़ा पायजामा इसलिए भी पहना जाता था उस वक़्त कि चलते वक़्त पैरों के अंदर तक हवा की आवाजाही रहे, साथ ही किसी अभागी दीवार के पास जाकर बैठते वक़्त कान में जनेऊ डालकर पायजामे को नीचे से पकड़ कर थोड़ा ऊपर चढ़ाने से लघु शंका का निवारण भी हो सके, नाड़े से उलझने की आवश्यकता नहीं थी।
उस वक़्त कहाँ थे सुलभ शौचालय, बेचारी दीवारों और पेड़ों ने ही ये जिम्मेदारी भी अपने सर ले रखी थी।

खैर, सब कुछ ठीक ही चल रहा था कि एक दिन उनके मन में फुलपैंट और शर्ट के प्रति प्रेम जाग ही पड़ा। कोलकाता और छात्र भवन के साथियों का प्रभाव भी अब पड़ने लगा था।

पैंट और शर्ट का कपड़ा लेकर भाई साहब के साथ चल पड़े दर्जी के पास। नाप देते वक्त दिमाग में पायजामा ही छाया हुआ था। इसलिए नाप भी उसी तरह दिया। दर्जी ने फिर वैसा ही नाप लिया जैसा कहा गया।
भाई साहब मूकदर्शक ही रहे क्योंकि थोड़े दिन साथ रहकर समझ गए थे कि ये करेंगे वही जो इनकी समझ कहेगी। एक सप्ताह बाद ट्रायल पर आने को कहा गया। ये भी एक नई बात थी। पर उन्होंने इस पर कोई आपत्ति दर्ज नहीं की।

एक दिन भाई साहब अपनी ट्रेनिंग से लौटे तो देखा चौबे जी कमरे मे फुल पैंट और शर्ट पहने उनकी राह ही देख रहे थे। आते ही पूछा, कि कैसे जंच रहे हैं?

भाई साहब टिप्पणी से बचना चाहते थे पर बहुत जिद करने पर बोले कि कमर के पास थोड़ा ढीला लग रहा है।

चौबे जी बोल पड़े , अरे बेल्ट पहन लेंगे और बुशर्टवा थोड़ा खींच लेंगे तो सब ठीक हो जाएगा।

भाई साहब बोले कि जांघो के पास भी थोड़ा ढीला है,

चौबे जी बोले कि बुशर्टवा थोड़ा और खींच लेंगे न।

अब प्रश्न पैंट की मोहरी पर जा अटका, उस वक़्त मोहरी कम चौड़ी पहनने का रिवाज था, बेल बॉटम तो बाद में आये थे।

इस पर वो जरा तमक उठे, और पूछ बैठे कि ये फुलपैंट है कि नहीं?

भाई साहब जल्दी से बोल पड़े कि हाँ, फुलपैंट तो है।

ये मन ही मन में कहा होगा इसकी जाति तो वही लग रही है बस अपने पूर्वज पायजामे से प्रभावित लग रहा है जरा!!!!

हँसी , उपहास की बात तो है, पर जरा गौर से सोचिए कि यही बात विचारों पर लागू करके अगर देखें , तो हम सब में भी चौबे जी कहीँ किसी कोने में ढीला ढाला सा पुराने चलन का पायजामा थामे ही मिलेंगे और किसी बात को अपनी तरफ से सही या गलत ठहरा रहे होंगे।

पहनावा तो बदलता ही है समय के साथ, मानसिकता किस सदी की ओढ़े हुए हैं कभी उसका भी उत्पादन वर्ष यदा कदा देखने की जरूरत तो है!!!

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