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23 Aug 2020 · 2 min read

मुमताज़ काका

मुमताज काका
~~~~~~~~
एक थे मेरे मुमताज काका
हमारे बहुत ही प्यारे काका।
कहने को तो वो
हमारे हलवाह थे,
पर जैसे पूरे घर के सर्वराकार थे।
जानवरों के खाने पीने से लेकर
खेती बाड़ी के वे ही जिम्मेदार थे।
हमारे घर पर ही उनका बसेरा था,
अपने घर कई कई दिनों बाद
लगता केवल फेरा था।
अपने घर पर तो जाने का
मात्र बहाना था,
कब गये कब आये
किसी ने न जाना था।
तड़के उठना
जानवरों को भूसा पानी के लिए
नाद पर ले जाकर बाँधना,
गोबर उठाना, दरवाजे की सफाई
ये ही उनका रोज का फसाना था।
फिर अपनी साफ सफाई
कुछ खा पीकर
फिर खेती के काम में जुट जाना,
समय पर नाश्ता न मिले
तो सबकी शामत आ जाना।
कारण उनके हिसाब से
काम का नुकसान
बर्दाश्त न पाना।
हल चलाते हुए
अपने कंधे पर बिठाये रखना
पाटा चलाते हुए पैरों के बीच में बैठाना
बदमाशी करने पर डाँटना डराना
प्यार से समझाना,
ये है हमारे बचपन और
मुमताज काका का अफसाना।
अपनी औलाद समझते थे काका
कभी गुस्सा हो जायें तो
खूब बरसते थे काका,
बाबा, ताऊ,पापा, चाचा तो बस
चुपचाप उनकी सुनते थे,
सबको पता था
वो गलत नहीं बोलते थे,
जानवरों और खेती की खातिर ही
वो ज्यादा गरजते थे।
सबकी भलाई के लिए ही
वो जब तब लड़ते थे।
बहुत बार उनके साथ सोने के लिए भी
हम लोग आपस में लड़ते थे,
हाट बाजार और मेला भी
दिखाते थे काका,
हमारे लिये फल भी
तोड़कर लाते थे काका,
अच्छे से साफ कर ही
हमें खिलाते थे काका।
हमारे परिवार में काका का
विशिष्ट स्थान था,
हर किसी के मन में
काका के लिए बडा़ मान था।
घर में सभी को ही
काका का बड़ा ख्याल था।
ऐसा लगता था कि काका
हमारे नहीं
हम सब काका के परिवार हैं।
उनकी यादें आज भी जिंदा है,
स्मृतियों में तो आज भी
हमारे मुमताज काका जिंदा हैं।
✈सुधीर श्रीवास्तव

Language: Hindi
2 Likes · 2 Comments · 387 Views

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