आज़ाद गज़ल
निकल गया है साँप लकीर पीट रहें हैं
मर चुकी है आत्मा शरीर घसीट रहें हैं ।
ज़िंदगी है तो ज़िंदा रहने का हुनर भी
कर हम सब बस उसिको रिपीट रहें हैं ।
कहाँ तकदीर में है सबके लिए मकान
घर किसी के ,फुटपाथ और स्ट्रीट रहें हैं ।
बस तो गई है आबादी बेशुमार शहरों में
दिलो-दिमाग में मगर आज कंक्रीट रहें हैं ।
हैं तरक्कींयाँ नसीबों में उन्हीं नौकरों के
जो भी अपने मालिकों के फ़ेवरीट रहें हैं ।
-अजय प्रसाद