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19 Jul 2020 · 1 min read

वह बेचैन..

यूं ही बस नज़र पड़ी
वह बेचैन सी खड़ी
देखती घड़ी
हर घड़ी।।

गर्म ज़ज़्वात
उगलते पसीना
निश्चित ही नहीं था
गर्मी का महीना।।

शायद जिन्दगी के
कठिन दोराहे पर खड़ी थी
कोई कड़ा फैसला
लेने को अड़ी थी।।

लहराती जुल्फें
पवन की सरसराहट में
ठिठकती हर बार
ज़रा सी आहट में।।

द्वन्द्व सा विचारो में
उथल-पुथल भावनाओं में
कवि की कल्पना सी लगे
उन अदाओं में।।

संगमरमर सी मूरत
जन्नत की हूर थी
दिल के हाथों
लगती मजबूर थी।।

दायें-बायेँ देख रही थी
मानो किसी का इन्तजार था
भरोसा था की आयेगा
जिससे उसे प्यार था।।

झटक कर जुल्फें
गहरी एक सांस भरी
एक शीशे सा चटका
जब उसने आह भरी।।

लगा सब्र का पैमाना
छलकने को था
अश्क़ एक आँख से
टपकने को था।।

कि झटके से वह
एक ओर चल पड़ी
लगा कि भरी बसन्त में
बिजली गिर पड़ी।।

सम्वेदना का एक अनायास
सम्बन्ध जोड़ गई
कहाँ गई होगी ऐसे
कई सवाल छोड़ गई।।

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