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24 Jun 2020 · 1 min read

जाने कब से.....

जाने कब से मजबूरी के आँगन में,
भूख प्यास के घुँघरू बाँधे नाच रहे।।

गिरवी रखी हुई है अपनी तरुणाई,
पूर्ण सुरक्षित अलमारी के कोने में।
चुगली ना कर बैठे आँखों का पानी,
डर लगता है यही सोच बस रोने में।।

श्रम की स्याही से लिक्खी इस पोथी को,
लोग निठल्ले नाकारे ही बाँच रहे।।

चाँद सितारों के सपने दिखला दिखला,
मन की भोली श्रद्धा की इज्जत लूटी।
मासूम ख्वाहिशों की हत्या हो जाने पर,
पता चला थी महज दिखावा अंगूठी।।

परिवर्तित वे हुए लौह से सोने में,
और इधर हैं हम कि काँच के काँच रहे।।

जब से साधा होश जगत में तब से ही,
आवश्यकता की गाड़ी में जुते रहे।
चार चपाती मिलें वक्त पर इस खातिर,
रात दिवस ही स्वेद बहाया कष्ट सहे।।

चिंताओं के लाखों मृग इस सीने पर,
निशदिन आकर भरते “दीप” कुलाँच रहे!!

प्रदीप कुमार “दीप”
सुजातपुर, सम्भल (उ०प्र०)

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