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1 May 2020 · 1 min read

मृगतृष्णा

मृगतृष्णा

देखो दिन-रात कैसे निकल रहे हैं,
ये जीवन कैसे-कैसे बीत रहे हैं ।
रात दिन के क्षण-क्षण में ,
अतृप्त मानव हमेशा भटक रहे हैं।

कभी मोह से चकित हो रहे हैं,
कभी भय से भ्रमित हो रहे हैं।
कब तृष्णा बुझेगी मन मृग की,
जो हर नैन में मृगनयनी ढूंढ़ रहे हैं।

मृगतृष्णा के आकर्षण में युवा फँस रहे हैं,
आधुनिक युग में यही अभी चल रहे हैं ।
तर्क वितर्कों की उलझन में हर मानव,
प्रेम वियोग में डूबकर बुद्धि भ्रष्ट हो रहे हैं ।
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रचनाकार-डिजेन्द्र कुर्रे “कोहिनूर”
पीपरभवना,बलौदाबाजार (छ.ग.)
मो. 8120587822

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