दो-बूंद
आज राजेंद्रनगर की तंग गलियों में एक बी एम् डब्लू के अचानक आकर रुकने से गलियों के बच्चों के लिए मानो एक अजुग्ग चीज देखने को मिल गई थी, वे उस गाड़ी के किनारे किनारे मैले-कुचैले कपडे पहने कुछ तो सिर्फ हाफ पैंट ही पहने ऊपर का अंग खुला लेकर ऐसे एकत्र हो कर खुश हो रहे थे मानो उन्हें इंद्र का राजसिंहासन मिल गया है | तभी उस गाड़ी से एक लगभग ६ फिट का लम्बा-चौड़ा सांवला सा नौजवान काली कोट-पैंट पहने चश्मा लगाये उतरता है | और बड़े अधीर क़दमों से आगे बढ़ते हुए नजदीक ही एक नीम के पेंड के पास बने चबूतरे पर बैठ गया | बगल के एक खंडहर को देखते हुए अतीत के उन दिनों में खोता चला गया, जब उसका पूरा परिवार किस तरह हंसी-खुशी इसी खंडहर बन चुके छोटे और सुन्दर से घर में रहता था | उसके पिता पास ही एक कम्पनी में काम करते थे, माँ घर का सारा काम करती और शाम को सभी लोग घूमने निकल जाते थे | हर त्योहारों पर घर में अनेक पकवान मौसम और त्योहर के हिसाब से बनाये जाते थे | और पास के पड़ोसियों के यहाँ भी माँ जरूर बाँटती थी | सभी कितने खुश थे लेकिन वह दीपावली की रात जब पहली बार माँ को पिताजी से लड़ते देखा था, आखिर कोई भी पत्नी होती तो जरुर ही लड़ती क्योंकि पिताजी से माँ ने बाजार से सामान मंगवाया था और पिताजी सामान तो दूर अपनी साइकिल भी बेच आए थे, ऊपर से शराब भी पी रखी थी | दोनों के झगड़े को मैं एक कोने से देख रहा था | बात-बात में पता चला की बगल के ‘अजय’ चाचा जो की पिताजी के मित्र थे और माँ को वे फूटी आँख भी नहीं भाते थे, उनकी चाल-ढाल माँ को बिलकुल पसंद न थी | उनके साथ और मित्रों के साथ बैठ कर पिताजी उस दिन जुआ खेले और सबकुछ हार कर गम में शराब पीकर घर वापस आए थे | किसी तरह वह दिन बीता न जाने उस दिन से मेरे घर को किसकी नजर लगी की पिता जी लगभग हर दिन ही शराब पीकर आने लगे और माँ से बात बात पर लड़ने लगते | किसी तरह दिन बीत रहे थे इन्ही दिनों मेरे घर में एक और नन्ही मेहमान का आगमन हुआ, मेरी माँ ने एक बच्ची को जन्म दिया | थोड़े दिन तक तो सब ठीक रहा माँ को राहत मिली कि चलो अब पिताजी सुधर गए हैं | लेकिन माँ गलत थी कुछ दिनों के बाद पिताजी फिर शराब के गर्त में गिरते चले गए इस बार तो ऐसी लत पड़ी की पिताजी की नौकरी भी जाती रही, क्योंकि कई बार डिउटी पर भी पिताजी शराब पिए पकडे गए थे | अनेकों बार की चेतावनी के बाद जब नहीं सुधरें तो उन्हें नौकरी से निकाल दिया गया | अब तो और घर पर आफत आ गई थी, क्योंकि पिताजी घर पर रहते | कुछ काम तो था नहीं बस, माँ से लड़ते रहते घर में रखा थोडा बहुत पैसा धीरे-धीरे ख़तम होने लगा | माँ ने पिताजी को बहुत समझाया लेकिन पिताजी को कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था | दुकानदारों ने भी उधार देना बंद कर दिया था आखिर कौन कितने दिन तक उधार देता | एक दिन तो छोटी बहन को पीने के लिए दूध न था तो माँ ने पानी में आटा और थोड़ी चीनी मिलाकर छन्नी से छान कर पिला दिया जिससे उसकी भूख तो मिट गई पर अनपढ़ माँ समझ न सकी थोड़ी देर बाद बहन के पेट में दर्द होने लगा और पड़ोसियों ने भूत-प्रेत की बात करके थोड़ी दूर में रहने वाले एक ओझा (भूत-प्रेत उतारने वाले) को बुला लाये उसी समय मैं सरकारी स्कूल से घर वापस आया ही था कि घर के सामने भीड़ देख कर डर गया, मन में तरह-तरह के बुरे विचार आ रहे थे | दौड़ कर दरवाजे पर पहुँचा तो समझा की माजरा क्या है | उस समय मैं कक्षा सातवीं का छात्र था और उसी दिन हमारे स्कूल में विज्ञान के एक पाठ को पढ़ाने के दौरान अध्यापक द्वारा बताया गया था, कि किस तरह से हमारा पाचन तंत्र काम करता है, और सही पाचन क्रिया न होने पर हमें क्या-क्या हो सकता है | मुझे तुरंत माँ के द्वारा बहन को आटा पानी में मिलाकर पिलाने वाली घटना याद आ गई और दिमाग में यह बात भी समझ में आ गई की छोटी सी बच्ची को आटा आसानी से हजम नहीं हुआ उसी लिए वह रो रही है | तुरंत माँ के साथ बहन को लेकर नजदीक के डॉक्टरके पास पहुँचा | डॉक्टर ने देख कर दो से तीन ड्राप एक दवा पिलाई थोड़ी देर में बहन को आराम मिल गया और वह सो गई | लेकिन जब फीस की बारी आई तो माँ के पास पैसे न थे | माँ ने अपनी एक पतली मंगलसूत्र वाली चेन बेचकर बहन के दवा के पैसे चुकाए | फिर हम सब दवा लेकर घर आ गये | धीरे-धीरे सब सामान्य हो गया था पिताजी एक आटो-रिक्शा किराये पर चलाने लग गए थे, किसी तरह घर का खर्च चलता था | लेकिन पिताजी की शराब की आदत में कोई बदलाव न आया था | उस दिन की रात याद है जब पिताजी आटो चला कर स्टैंड पर खड़ा करके आ रहे थे और शराब पी रखी थी सड़क पार करते समय ट्रक ने ऐसी टक्कर मारी कि फिर कभी न उठ सके वहीं सड़क पर ही उनकी मौत हो गई | मेरी माँ का रो-रो कर बुरा हाल था | छोटी बहन बहुत छोटी थी उसे तो कुछ मालुम भी न था की क्या हो गया ? सभी लोगों ने मिलकर पिताजी का अंतिम संस्कार किया | अब मेरी माँ के सामने पिताजी के जाने के बाद दो बच्चों की परवरिस की जिम्मेदारी पूरी तरह आ गई थी | मेरी माँ ने एक सिलाई की दुकान में काम करना शुरू कर दिया | किसी तरह फिर जीवन की गाड़ी पटरी पर आ गई थी | लेकिन भगवान को तो और कुछ मंजूर था एक दिन माँ ने छोटी बहन के साथ घर में ही फांसी लगा ली | मैं स्कूल से आया तो घर में यह सब देखकर होश खो बैठा और घर से बहार की ओर भाग कर जोर जोर से चिल्लाकर रोने लगा ‘मेरी मम्मी मर गई’ सभी पास के लोग भाग भाग कर मेरे घर में आने लगे | माँ ने मरने से पहले एक पत्र लिख कर छोड़ा था जिसमें अजय चाचा को मौत का जिम्मेदार ठहराया था क्योंकि अजय चाचा ने उनको अपनी हवस का शिकार बना लिया था | और माँ ने अपनी आबरू को न बचा पाने के कारण फांसी लगा ली | पुलिस आकर अजय को उनके घर से गिरफ्तार कर लिया | मेरे परिवार को उजाड़ने वाले दरिन्दे ने अपना गुनाह कुबूल कर लिया और फास्ट-ट्रेक की अदालत ने उसे उम्र कैद की सजा सुनाकर उसे जेल भेज दिया गया | माँ के मरने का बाद मेरी पढ़ाई छूट गई खाने पीने के लिए कुछ दिन तो रिश्तेदारों ने साथ दिया | आखिर इस संसार में कौन कितना किसका साथ देता है ? मै पड़ोस के एक मंदिर में पुजारी के साथ उनका हाथ मंदिर के कामों में बटाने लगा दिन भर में जाओ चढ़ावा चढ़ता उसमे से कुछ खाने को मिल जाता इस तरह मेरी जिंदगी चलने लगी | एक दिन सुबह-सुबह पंडित जी ने नारियल लेने के लिए मुझे दुकान पर भेजा, जैसे ही नारियल लेने के लिए सड़क पर आया, देखा एक बुढ्ढा जो देखने में काफी अमीर लग रहा था सड़क पार कर रहा था और ठीक उसी समय तेजी से दूसरी ओर से एक कार चली आ रही थी, पर बुढ्ढे का ध्यान उधर न था मेरे मन में पिताजी के एक्सीडेंट का समय सामने आ गया मैं दौड़ कर बुढ्ढे को अपनी ओर खीँच लिया और उसे कार के नीचे आने से बचा लिया | बुढ्ढा डर के मारे कांपने लगा था | लोगो नें उसे पानी पिलाया, बगल में रखी कुर्सी पर बिठाया उसी समय बुढ्ढे ने कही फोन किया एक लम्बी काली कार थोड़ी देर में आकर रुकी उसमें से एक सुन्दर लम्बा गठीला नवजवान बाहर आया और बुढ्ढे की कुशल क्षेम पूछनें लगा | थोड़ी देर में बूढा जाने को तैयार हुआ उसकी नजरें शायद मुझें ही ढूढ़ रही थी | उसने मुझे देखा और पास आने का इशारा किया पास आने पर उसने मुझे एक ५०० रुपये का नोट मेरी तरफ बढ़ाया लेकिन मैने लेने से मना कर दिया बूढ़े के लाख कहने पर भी मैने पैसे नहीं लिए | वह जाने के लिए कार की तरफ बढ़ा तो अचानक मेरी आँखों में आंसू देखकर उसके पांव वही रुक गए वापस आकर मेरे रोने का कारण पूछा | भला मैं क्या बताता ? लोगों से जब उसे मेरे इस दुनिया में अकेले रहने की बात पता चली तो वह बड़े प्यार से मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए मुझे अपने सीने से लगा लिया और दुनिया दारी की बाते बताते हुए अपने साथ ले जाने के लिए मुझे राजी कर लिया मै भी भगवान की इच्छा मान कर उसके साथ चल दिया | बड़ा आलीशान घर था बूढ़े का लेकिन घर में वही अकेला रहता था नौकर चाकर की कमी न थी | बात बात में ही पता चला की उसकी पत्नी एक हादसे का शिकार हो चुकी थी, एक बेटा था जो बहू के साथ अमेरिका में जाकर वहीँ का हो चुका था किसी बड़ी इंडियन कम्पनी में ऊँचे पद पर था | वह ही गर्मी की छुट्टी में हर साल आ जाया करता था जो इस समय आया हुआ था | वह पिता से कहने लगा कि इस बार आपको मेरे साथ अमेरिका चलना है मै आपको यहाँ अकेले अब नहीं छोडूंगा | इस पर बूढ़े ने कहा कि – ‘बेटा तुम जाओ मेरी चिंता मत करो, यहाँ सभी तो हैं ही और अब तो मुझे भगवान ने एक काम दिया है सो इस बच्चे की परवरिस करना, इसने मेरा जीवन बचाया है अब मैं इसका जीवन संवारूगा | कुछ दिनों बाद उसके बेटे-बहू अमेरिका चले गये उसके बाद बूढ़े बाबा ने मेरा दाखिला शहर के नामी इंजीनियरिंग कॉलेज में सिविल इंजीनियरिंग के लिए करा दिया और धीरे-धीरे हम एक दूसरे के सहारे बन कर जीने लग गए, बूढ़े बाबा मुझे बहुत प्यार करने लग गए थे | मुझे भी उनसे उतना ही लगाव हो गया था | मै उनको प्यार से बाबा और वे मुझे राजू कहने लग गये थे | कब मेरी इंजीनियरिंग की पढाई ख़त्म हुई पता ही न चल सका और वो दिन आया जिस दिन मुझे डिग्री मिलनी थी मैने बाबा को पहले ही बता रखा था कि आपको हमारे विद्यालय के आयोजन में आना है क्योकिं सभी के परिवार से कोई न कोई आ रहा था | आज सुबह जल्दी उठकर नहा-धोकर शीघ्र ही तैयार हो गया | बाबा भी समय के बड़े पाबंद थे वे भी समय से तैयार होकर नीचे नाश्ते की मेज पर आ गये | जहाँ मै पहले से बड़ी बेशब्री से उनकी प्रतीक्षा कर रहा था | नाश्ता कर के हम और बाबा कार से विद्यालय की ओर निकल पड़े कुछ ही समय में हम विद्यालय के सेमिनार हाॅॅल में थे | हाॅॅल अभिभावकों और बच्चों से खाचा-खच भरा था | एक-एक करके सभी को डिग्री प्रदान करने के लिए मंच पर बुलाया जाने लगा मेरी धड़कन तेज हो रही थी कि इसी बीच मेरा नाम बुलाया गया | मै धीरे-धीरे क़दमों से मंच की ओर बढ़ा तभी पास होने की घोषणा हुई मेरी आँखों में आंशू छलक आये कांपते हाथों से मैने डिग्री थामी और मंच से आकार डिग्री बाबा के चरणों में रख दी, बाबा ने झट से उठा कर गले लगा लिया | आज मुझे अपने माता-पिताजी की बहुत याद आ रही थी | लेकिन दुःख दिल में ही दबाकर घर वापस आने के लिए कार मे बैठ गया |रास्ता कब ख़तम हुआ पता ही ना चल सका मेरी तन्द्रा तब टूटी जब बाबा ने कहा की पिछली सीट पर बैग रखा है लेकर आना | मैंने लगभग चौकते हुए कहा कि जी बाबा जी, और बैग लेकर घर आ गया | दूसरे दिन ही बाबा ने नाश्ते की टेवल पर पूछा की अब क्या करने का विचार है? तो मैने सहज भाव से कहा की अब मैं नौकरी करूँगा | बाबा हँसकर बोले:-“क्या मैने इसीलिए तुम्हे इतना पढ़ाया-लिखाया है ? कल मेरे साथ चलाना |” मैं समझ ही न पाया था कि माजरा क्या है ? दूसरे दिन बाबा मुझे पहले मंदिर ले गए फिर शहर के बीच स्थित एक भव्य इमारत की दसवीं मंजिल पर ले गए यह एक नया आफिस था | जहाँ पर कई एक केबिन बनी थी, देख कर चकित रह गया बाबा ने कहा यह मेरी तरफ से तुम्हे मेरा दिया उपहार है | अब तुम्हे अपनी मेहनत और लगन से इस कांस्टेक्शन कम्पनी को आगे बढ़ाना है मेरी दुआ सदा तुम्हारे साथ है | मै अबाक था ! मेरे आँखों में आंसू थे, लेकिन मुख से कुछ निकल न सका | अगले दिन पूजा करके बाबा ने समाचार-पत्रों में कर्मचारियों के लिए इख्तियार भी दे दिया और लगभग दो से तीन माह में कम्पनी,पूरी तरह बाजार में खड़ी हो गई थी | एक साथ बाबा ने तीन प्रोजेक्ट लाँच किये जो की काफी कम दाम वाले मकानों का निर्माण करने के थे जिनकी बाजार में काफी मांग थी इस वजह से बुकिंग भी काफी अच्छी हो गई थी अब बारी थी निर्माण की, वह भी जल्द शुरु हो गया और सही समय पर सभी बुकिंग करने वालों को माकन बिना किसी शिकायत के मिलने से बाजार में कम्पनी का नाम हो गया और कम्पनी चल निकली | चार साल में कम्पनी ने लगभग तीस सफल प्रोजेक्ट बाजार में उतार कर लोगों को प्रदान कर दिया था | सब कुछ बहुत अच्छी तरह से चल रहा था,कि अचानक एक दिन बाबा बाथरूम में फिसल कर गिर गए उन्हें हास्पिटल में भरती कराया गया | उनके सिर में गहरी चोट लगी थी उन्हें २४ घंटे के लिए डाँक्टरों ने उन्हें गहन देख-रेख के लिए ‘गहन-चिकित्सा कक्ष’ में रखा क्योंकि उन्हें शक था की चोट के कारण सिर के अन्दुरूनी भाग में कहीं खून का रिसाव न हो रहा हो | बाबा के बारे में सुनकर उनके बहू-बेटे भी आ चुके थे | दूसरे दिन डाँक्टरों ने सुबह ही बाबा को चोट के कारण ‘कोमा’ में जाने के साथ ही गंभीर-अवस्था की घोषणा कर दी, यह सुन कर हम सब के पैर के नीचे से जमीन खिसक गयी | शाम को करीब ९ बजे के आस-पास बाबा हम सभी को अकेला छोड़ दुनिया से चले गये | उस दिन एक बार फिर से भगवान के ऊपर से भरोसा उठ गया | बाबा का क्रिया-कर्म एवम सभी संस्कार बड़ी धूम-धाम से किया गया | बाबा के बेटे जब विदेश जाने के लिए तैयार हुए उसी समय बाबा के परम मित्र और पेशे से वकील पंडित रमण रेड्डी वहां आ गये और बाबा के द्वरा बनवाई गई वशीयत बाबा की ईच्छा के अनुसार सभी के सामने पढ़ने लगे मेरे पैर तले तब जमीन खिसक गई जब मैने सुना की बाबा ने वसीयत में मुझे आधी जायजाद का मालिक घोषित किया है | मैंने जायजाद लेने से सीधा मना कर दिया | लेकिन बाबा के बेटे ने बाबा की आत्मा की शांति के लिए मुझे बाबा की कसम दिलाकर जायजाद लेने की मिन्नत करने लगे और कहा की ये बाबा का आदेश है | उस समय मेरे आँखों में आंसू भर आये थे | तभी मेरी तन्द्रा टूटी जब देखा की मेरे पास खड़ा मेरा पर्सनल असिस्टेंट मुझे हिला-हिला कर पुकार रहा था और कह रहा था कि:-“सर ठेकेदार आ गया है |” मैने तिरछी नजर से देखा, वह बोल उठा नमस्ते सर, मैं नमस्ते का जबाब सिर हिलाकर दिया और एक लम्बी साँस लेकर खड़ा हुआ तथा ठेकेदार से अपने खँडहर हुए पैतृक घर के स्थान पर अस्पताल बनवाने की इच्छा जाहिर की | मैने अपने साथ आये सिविल-इंजीनियर रमेश को अस्पताल का पूरा नक्शा ठेकेदार को बताने के लिए कहा | इस तरह लगभग सात-आठ महीने में अस्पताल बनकर तैयार हो गया | कुछ दिन के बाद ही बाबा की पुन्यतिथि के दिन राजेंद्रनगर में एक भव्य सभा का आयोजन करके राजू ने उस उस अस्पताल को ‘देवालय-रुग्णालय’ का नाम देकर राजेंद्रनगर के वासियों की मुफ्त सेवा करने के लिए उन्हें समर्पित कर दिया | साथ ही अपने वक्तव्य में उसने कहा कि –“आज भी बाबा की यादें मेरे मन में ताजा हैं बाबा को उनके द्वारा किये मेरे लिए महान कामों के प्रति यह मेरी तरफ से एक छोटी सी ‘दो-बूंद’ की भेंट थी | मुझे अभी और भी कार्य करने हैं | बाबा ने मेरा जीवन सवांरा है मेरी इच्छा और उदेश्य है कि मैं समाज के उन नौनिहालों के लिए मुफ्त शिक्षा की व्यवस्था करूँगा जिन्हें आर्थिक समस्या या किसी अन्य कारण से उनका बचपन उनसे छिना जा रहा है और उन्हें शिक्षा नहीं मिल पा रही है | अब उनका अधिकार उन्हें मिलेगा और उनसे उनका बचपन कोई भी नहीं छीन सकता यह मेरा संकल्प है |”
पं. कृष्ण कुमार शर्मा “सुमित”