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18 Mar 2020 · 1 min read

दुआएँ लिपटी हैं

शुष्क जज़्बात से जब आँखें भरा करती हैं
रोज ख्वाबों की कोशिकाएँ मरा करती हैं

मुद्दतों हमने सँभाला है धड़कनों में जिन्हें
मिरी साँसें उन्हीं जख्मों को हरा करती हैं

दुआएँ लिपटी हैं यूँ जिस्म से कवच जैसी
बलाएँ पास फटकने से डरा करती हैं

उम्र की फस्ल का क्या बनना निगेबाँ जिसको
वक्त की बकरियाँ हर वक्त चरा करती हैं

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