मुक्तक
कभी क़ाबा, कभी काशी, कभी मस्जिद -शिवाला है,
साज़िश है दलालों की कोई सिक्का उछाला है,
मज़दूरों की बस्ती मुझे बस लगती है बेहतर
जहाँ पर है खुदा मेहनत मज़हब ही निवाला है “
कभी क़ाबा, कभी काशी, कभी मस्जिद -शिवाला है,
साज़िश है दलालों की कोई सिक्का उछाला है,
मज़दूरों की बस्ती मुझे बस लगती है बेहतर
जहाँ पर है खुदा मेहनत मज़हब ही निवाला है “