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2 Apr 2019 · 1 min read

स्वीकार है: जीवन की ललकार

रणक्षेत्र सजी हुई है
सेनायें सुसज्जित खड़ी है तैयार
जीत हो या हो भले ही हार,
है स्वीकार
जीवन की मुझे ललकार।

जल रहा प्रत्येक क्षण हृदय द्वेष और विरोध का
मानो जल रहा रवि प्रलय का
क्रोध वैमनस्य में चांद से भी अग्नि की लपटें निकल रही है
हिमगिरि की शिलायें भी जल उठी है।

छूट रहे शब्द-बाण चंहु ओर से
टूटते जा रहे हो भले संबंध सबके
हो भले व्रज का प्रहार
या धरती-आसमान मिले हुए हों
या जग के प्राण-प्राण मिले हुए हों।
मैं अकेला, अंधकार अपार,
है स्वीकार हर ललकार मुझे।

क्षुब्ध सागर की हिलोरें बढ़ रही हों
क्रुद्ध होकर हिम-शिखर पर चढ़ रही हों,
मैं भले चट्टान का एक मामूली टुकड़ा
राह रोके अविचल खड़ा मिलूंगा
भले हो जायें प्रलय में जलमग्न
है स्वीकार
लहरों की मुझे फुफकार।

युद्ध का परिणाम क्या होगा
परवाह नही मुझे,
मैं यौद्धा, युद्ध करना जानता हूँ;
रख दिया जो पैर वह आगे बढ़ेगा,
उच्चतम प्रालेय शिखरों पर चढ़ेगा।
मृत्यु की होगी वहाँ ललकार,
है स्वीकार
मुझको मृत्यु से भी प्यार।

जरूरत नही आश्रय का, अकेला चलूँ निर्भय
साथ में संसार चाहे हो नहीं;
नाव जीवन की चले भले तूफान में
हाथ में पतवार चाहे हो नहीं।
डूब जाये या कि हो जाऊं पार
जग करे घृणा या प्यार
करता ना इसकी तनिक परवाह।

रणक्षेत्र सजी हुई है
सेनायें सुसज्जित खड़ी है तैयार
जीत हो या हो भले ही हार,
है स्वीकार
जीवन की मुझे ललकार।

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