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20 Feb 2019 · 3 min read

शायर कोई और…

शायर कोई और!
(एक अनुभूति)

वह तभी आती है, जब मैं पूरी तरह नींद के आगोश में बेखौफ होकर इस दुनिया से बेख़बर ख्वाबों के दुनिया में निरंकुश विचरण करता रहता हूँ, शायद मेरा ख्वाब देखना उसे गवारा नही…

बारिश शाम से ही कहर बरपाने में मसरूफ था, काली अंधेरी, खौफनाक, निःशब्द रात अपने शबाब पर थी।

झींगुरों, मेढ़कों और कीट-पतंगों की आवाजें रात के खामोशी को छेड़ कर भयावह बना रहे थे और मैं अपने बिस्तर पर तकिये को बाहों में भर कर अलौकिकता के एहसास में डूबा हुआ था।

सहसा दरवाजे पर दस्तक हुई। पहले तो मैंने अनसुना किया किंतु बार-बार के दस्तक पर नींद टूट गई। अलसाई आँखों को मलते हुए मैंने दरवाजा खोला तो सामने “वही” थी। “इतनी रात गए बारिश में” मैने पूछा।

“हाँ!मैं वक़्त हूँ, और वक़्त परिस्थितियों का मोहताज नहीं उसका निर्माता होता है”

अदा से उसने अपनी भीगी हुई जुल्फों से पानी के कुछ बूंदों को मेरे चेहरे पर झटकते हुए कहा और कमरे के अंदर आकर बिस्तर पर बैठ गई।

आज वो और भी खुबसूरत लग रही थी। बारिश में भीगने की वजह से ही शायद, पर लालटेन की मद्धिम रोशनी में वो किसी अप्सरा से कम नहीं लग रही थी। अर्धपारदर्शिता लिए सफेद लिबास में लिपटा मांसल देह, माथे पर गहरे लाल रंग की बिंदी। कपोल, कंधों पर चिपकी हुई उसकी भीगी काली जुल्फें… यौवन जैसे पानी के बूँदों के साथ गुलाबी अधरों से टपक रहा था। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं कि साक्षात रति मेरे समक्ष मौजूद थी।

यह पहली बार नहीं था फिर भी मैं उसे मंत्रमुग्ध सा देखता जा रहा था। “ ऐसे क्या देख रहे हो?” हयात के पिछे से झाँक कर, बिना पलक झपकाए शिद्दत से वो मुझे अपनी ओर देखते देख कर बोली।

जवाब मे मैंने अपनी आँखें, उसकी गहराई लिए बड़ी-बड़ी नशीली आँखों में डाल दिया। मैं उसके करीब जाना चाहता था, चेहरे पर बिखरी जुल्फ के लटों को संवारना चाहता था। टपक रहे मादक अधरों से मदिरापान करना चाहता था, आलिंगनबद्ध होकर ज़िस्म से रूह तक उतरना चाहता था, दरमियान जो दूरियां व्याप्त थी खत्म कर एकाकार हो जाना चाहता था, ख्वाबों से उतार कर मै उसे हकीक़त के धरा पर महसूस करना चाहता था। किंतु हर बार ऐसा कहां होता, जैसा इंसान का दिल चाहता है।

मैं उसे स्पर्श कर पाता, हर बार के तरह उसने मेरे मेज पर बिखरे कागज के एक टुकड़े को उठा कर मेरे हाथ में दिया और कहा चलो प्रारंभ करो। मैं उसके इरादे से वाकिफ था सो कलम उठाया और चल पड़ा, वो बोलती गई मैं लिखता गया…

जैसे ही उसका कार्य पूर्ण हुआ शुभरात्री बोलने के साथ जल रही लालटेन के रोशनी को मद्धिम करते हुए कमरे से निकल कर वह बरसते बादलो की गुर्राहट और तेज हवाओं के बीच कहीं गुम सी हो गई और मैं उसे जाते हुए देर तलक देखता रहा… पुनः मैं अधूरी ईच्छाओं की तरह बिस्तर पर करवटें बदलता रहा।

सुबह जब नींद से जागा तो जेहन में कुछ धुंधली यादें और मेज पर पड़े उस कागज के टुकड़े पर कुछ “शब्द” बिखरे पड़े थे, जो शब्द कभी राजीव की शायरी, कभी कहानी और कभी कविताएँ कहलाती हैं।

-के. के. राजीव

Language: Hindi
632 Views

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