मुक्तक
सूरज से माँग बैठी उजाले उधार के,
अरमान नीचे दब गए कर्तव्य भार के,
मुश्क़िल वहीं था मोड़ जहाँ मुड़ न पाए तुम
पलटी थी कितनी बार मैं तुमको पुकार के
सूरज से माँग बैठी उजाले उधार के,
अरमान नीचे दब गए कर्तव्य भार के,
मुश्क़िल वहीं था मोड़ जहाँ मुड़ न पाए तुम
पलटी थी कितनी बार मैं तुमको पुकार के