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2 Feb 2019 · 1 min read

बंजारन

हम प्रकृति के प्रांगण में
खुशियां मनाएं हर आंगन में
माँग -माँग कर खाय हम
क्या मजा है मांगन में ।

शोर -शराबा खूब करें हम
नासमझी मेरी कहानी है
हम स्वछंद विचारों के पोषक हैं
प्रकृति करती हमारी निगरानी है
अन्याय किसी से करते नही
सो जाते हैं उसके आंचल में ।

तापस जन क्या तपते हैं
जो तपन है अंदर में
नदियों में क्या लहरें हैं
जो लहरें हैं समंदर में
भाव नही अभाव में जीते
फिर भी बैठें नही अनशन में ।

दिन ढले या रात होय
मेरी हाल पुछे न कोय
प्लेटफॉर्म हो या चौराहा
कहीं आशियाना बनाते हैं
देख ऐसी जिंदगी
लोग अँखियाँ चुराते हैं
सुंदरता नही है उतनी जो होती है सुहागन में
हम प्रकृति के…..

साहिल की कलम से ….?

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