मुक्तक
” ज़िन्दगी हमने सलीके से सँवारा ही नही है,
कुछ तो क़र्ज़ है जो हमने उतारा ही नही है,
शर्म आती है कि उस शहर में हम हैं कि जहाँ
न मिले भीख तो लाखों का गुज़ारा ही नही है “
” ज़िन्दगी हमने सलीके से सँवारा ही नही है,
कुछ तो क़र्ज़ है जो हमने उतारा ही नही है,
शर्म आती है कि उस शहर में हम हैं कि जहाँ
न मिले भीख तो लाखों का गुज़ारा ही नही है “