मुक्तक
ज़मीं को लाख जोतो वो कभी शिकवा नहीं करती,
लुटा धन धान अपने नाम एक पौधा नहीं करती,
उसे गिर गिर के उठने का हुनर भी ख़ूब आता है,
दीये की लौ हवा के ज़ोर से टूटा नहीं करती।
ज़मीं को लाख जोतो वो कभी शिकवा नहीं करती,
लुटा धन धान अपने नाम एक पौधा नहीं करती,
उसे गिर गिर के उठने का हुनर भी ख़ूब आता है,
दीये की लौ हवा के ज़ोर से टूटा नहीं करती।