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30 Nov 2018 · 1 min read

माँ

माँ

देखती हूँ बरामदे के कोने पर
रोज़ सुबह आती है दाना लिए
वह नन्ही चिड़िया..

घोंसले में दुबके बच्चों को खिला
मुड़ जाती है और लाने..

एक ही दिन में बिना थके काटती
कितने ही चक्कर..

उसे पता है काबिल होते ही
उड़ जायेंगे पंख फैला
अपना अलग नीड़ बनाने..

उसके हिस्से में रहेगी
कुछ यादें और बिखरे तिनके..

वह फिर भी
संजोएगी दाना – दाना..

शायद कभी लौट आएं
भूख लगने पर उसके बच्चे
और जरूरत पड़े उन्हें
माँ के चुगे दानों की..

महिन्द्र कौर (मोनी सिंह)
दिल्ली

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