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14 Nov 2018 · 2 min read

बचपन

बचपन
वो बचपन के सपन सलोने,
स्मृति से कब छंटते हैं।
उम्र हो रही पचपन की पर,
नहीं पटल से हटते हैं।

लगता जैसे कल की बात है,
ऊधम खूब मचाई है।
और अभी तो बाबू जी ने,
जमकर डांट पिलाई है।

अभी-अभी भीखू काका के,
आम भी हमने तोड़े हैं।
और चने के खेत भी बोलो,
कितने हमने छोड़े हैं।

लाल अंगोछा लेकर भागे,
कूद पड़े हैं आहर में।
तेज धूप और गर्म हवा का,
मस्त मजा था छांहुर में।

कभी आम का छुंदा बनता,
कभी चटपटी ईमली थी।
पगहा छुड़ा कर कभी भागती,
गाय हमारी कमली थी।

पल भर में हम कृष्ण थे बनते,
सखियां सारी राधा थी।
लेकिन अपने रास में हरपल,
विमला चाची बाधा थी।

अपना रास शुरू होता कि,
वह भूत सी आ जातीं।
और अपनी बेटी “राधा” को,
छीन कृष्ण से ले जातीं।

और कभी मैं भूल न पाता,
दूध मलाई वाली वो।
लेकिन उससे सोंधी लगती,
हंडी की खुरचन पा ली जो।

और कर्ण सर, शर्मा सर से,
अपनी खूब कुटाई भी।
कभी कहां हम भूल हैं पाते,
बचपन की अपनाई भी।

सारा गांव, शहर वो छोटा,
अपना घर सा लगता था।
हंसते थे हम दूसरों के सुख में,
दुख उनका अपना लगता था।

लेकिन अब सब चूक रहा है,
वह नेह, प्रेम अपनापा भी।
बचपन पर हावी दिखता अब,
जर्जर छिन्न बुढ़ापा भी।

न तो आहर यहां बचे हैं,
न आमों की डाली है।
ना ही खेत खलिहान वे दिखते,
ना वो गाय ही कमली काली है।

अब तो बस है नेग पुराई,
हंसी खोखली खाली है।
रिश्ते-नाते सब धोखे हैं,
न बात वो बचपन वाली है।
@अमिताभ प्रियदर्शी

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