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14 Nov 2018 · 1 min read

तौबा! तौबा ये शीत लहरी।

अब तो कट-कटाते है दाँत, अधर भी कंप-कंपाती है,
तौबा! तौबा ये शीत लहरी, तू कितना हमे सताती है।

गर्म लिहाफो में वो ठुमके, सुविधाओ से भरपूर है जो,
ठिठुर-ठिठुर हाँथो को मलते, निकले वो मज़दूर है जो।
दिन भी होती ठंड गुलाबी, शाम तक धूप न आती है,
तौबा! तौबा ये शीत लहरी, तू कितना हमे सताती है।

आँख मिचौली खेले सूरज, तारे मन्द-मन्द मुस्काती,
बेशर्म हवाओं के झोखे, छण में सन-सन देह गलाती।
गर्मी लगती हमको प्यारी, कमजर्फ याद वो आती है,
तौबा! तौबा ये शीत लहरी, तू कितना हमे सताती है।

पहले था न फिक्र की क्यों, घर की टप्पर सड़ी गली,
बूँदा-बाँदी तो थी पर, बिटिया रानी रौद में बढ़ी पली।
अब तो घाम अछूता रह गया, गरीबी धुन्ध बढ़ाती है,
तौबा! तौबा ये शीत लहरी, तू कितना हमे सताती है।

घण्टो बतियाते थे बेटे से, आकाश को तकते तकते,
जाने कब नींद आ जाती, संग तारो को गिनते गिनते।
खुले सड़क पे बिस्तर वैसी, अब न जन्नत दिखलाती है,
तौबा! तौबा ये शीत लहरी, तू कितना हमे सताती है।

सर्द ये खली हुई निर्धन की, सुनहरा मौसम बीत गया,
एक गरीब की कुटिया फिर से, खुशियों से रीत गया।
धोती है क्या सुखवाती, किस नीड़ से आग जलाती है,
तौबा! तौबा ये शीत लहरी, तू कितना हमे सताती है।

©® पांडेय चिदानंद “चिद्रूप”
(सर्वाधिकार सुरक्षित १४/११/२०१८ )

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