Poem
परित्यक्त कब अभिव्यक्त
अशक्त कब अलमस्त
व्यक्त कब विश्वस्त
अधूरा हूं कहां समस्त
रोशनी को कर निरस्त
अंधेरे का अभ्यस्त
उगेगा फिर ये जान लो
हुआ सूरज जो आज अस्त
पहिया है घूमता है
कभी घुटन कभी मस्त
जीवन की बाज़ी लगी हुई
चकनाचूर कभी खुदपरस्त।
शतरंज का खेल जिंदगी
कभी जीत कभी शिकस्त।
– मोहित