माँ,मेरी माँ
विषय माँ,मेरी माँ
विधा छंद मुक्त
मर चुकी है माँ,
स्तब्ध खड़ी हूँ मैं,
सूनी हैं आँखें,जिनमें अश्रु तैयार हैं।
पर गिरते नहीं धरा पर ।
मानो कह रहे हों
उठ जाओ माँ!
उठो ना।देखो मैं आ गयीं
वे भी आये हैं अबकी बार
साथ में।
बाबू जी बैठे हैं ,एक कोने में
निःशब्द,मौन !क्यूँ नहीं बोलते बाबू जी?
सुनसान हो गया घर का आँगन
पायल अब नहीं बजती,
माँ की चूड़ियां भी नहीं खनकतीं ।
मायका तो माँ से होता है ना?
सुनसान पड़ा माँ का कक्ष।
अचार,पापड़,बड़ियों के डिब्बे
अब नहीं दिखते।
लगता है माँ सचमुच चली गयी ।
बाम की खुश्बू उड़ गयी,उनके साथ ही।
अचानक भाभी ने पूछा,”जीजी,चाय बनाऊँ क्या?
माँ तो कभी नहीं पूछती थी।
अश्रु धरा पर गिर पड़े।
माँ चली गयी है ….सचमुच ।
मीनाक्षी ठाकुर, मिलन विहार
मुरादाबाद???✍✍✍