II हक.. हमारा….II
हक लुटते हमारा,
क्या मालूम नहीं हमें l
कुछ बोलते नहीं,
मगर बेबसी से हम II
वह ढूंढते थे दौलत,
जग के बाजार मे l
उनको समझ नहीं,
न कमतर किसी से हम ll
समझा रही थी दुनिया,
मुझे अपने हिसाब से l
हम अपनी राह चलते,
नहीं डरते किसी से हम ll
कुछ तो लिहाज करते,
अब उम्र ए दराज का l
सारी उम्र ही लड़ें,
यहां मुफलिसी से हम ll
यूं तो जमाना जालिम,
करता रहा सितम l
डरते नहीं यहां,
किसी आदमी से हम ll
जो साथ ना तुम्हारा,
नहीं जी सकेंगे हम l
ठुकरा न दें जहां को,
कहीं बेदिली से हम ll
संजय सिंह “सलिल”
प्रतापगढ़ ,उत्तर प्रदेशl