II मोहब्बत का जरा खुलकर……II
मोहब्बत का जरा खुलकर सनम इजहार करने दो l
कयामत से कयामत तक मुझे तुम प्यार करने दो ll
चले आओ मेरी जानिब के हो ए फासले कुछ कम l
हसीन इन गेसुओं की छांव में इकरार करने दो II
ए हारा एक सिपाही है मोहब्बत की जहां में पर l
मजा जो हारने में है उसे स्वीकार करने दो II
कहीं खामोशियां तेरी न ले ले जान ही मेरी l
अगर पायल करे खनखन उसे झंकार करने दो ll
तेरी चौखट पे हूं हारा में कारोबार सब अपना l
खुले कुछ बंद दरवाजे मुझे अधिकार करने दो II
तुझे मैं पढ़ सकूं पूरा खुलापन हो किताबों सा l
न हो कुछ भी छुपा मुझमें मुझे अखबार करने दो ll
“सलिल” बातें बहुत सी है करूंगा फिर कभी तुमसे l
अभी बस पास में बैठो मुझे दीदार करने दो II
संजय सिंह “सलिल”
प्रतापगढ़ ,उत्तर प्रदेश l