II क्या करूं II
मैं रहा सुर ताल में ,थी भीड़ ज्यादा क्या करूं l
बे सुरों से सुर मिलाना, ही न आया क्या करूं ll
आ गया था मैं भी तेरे, दर पे मजमा देख कर l
सिर झुकाना ही न आया, पढ़ के कलमा क्या करूं ll
हो सके तो माफ कर दे, जिंदगी मेरी मुझे l
मैं निकल मजबूरियों से, चल न पाया क्या करूं ll
गैर से शिकवा न कोई, मेरे अपने भी कभी l
राह मेरी चल न पाए, आज दुनिया क्या करूं ll
दौलतों की थी कमी, जो गर्दिशों का साथ था l
प्यार से की परवरिश, जीवन लुटाया क्या करूं ll
अब “सलिल” मुमकिन नहीं, यह सफर आगे बढ़े l
भोर की पहली किरण, सपना बिखरता क्या करूं ll
संजय सिंह “सलिल”
प्रतापगढ़, उत्तर प्रदेश l