II आज का गांव II
आज इंसान खुद से हि अनजान क्यों l
रोज मिलते न होती दुआ बात क्यों ll
रह गया गांव का कोई मतलब नहीं l
बैठकों में वो रौनक न अभिमान क्यों ll
आज आती नहीं कोई पाती पिया l
हाथ मोबाइलों की हि मिस कॉल क्यों ll
बाग उपवन भि अब तो वीराने हुए l
गाती अब तो न कोयल मधुर गान क्यों ll
फागुनी भी हवाएं लुभाए न अब l
वो न सावन के झूले फुहारे न क्यों ll
साथ रहता नहीं कोई कुनवा यहां l
गाय- गोबर से घर भी लिपाए न क्यों ll
पेड़ जामुन के होते सभी के रहे l
होरी धनिया के बच्चे भि आए न क्यों ll
आम बिकने लगे खेत बटने लगे l
बाड रिश्तो में कोई लगाएंगे न क्यों ll
संजय सिंह “सलिल”
प्रतापगढ़, उत्तर प्रदेश l