dastak- gajal by Komal Agrawal
दस्तक – गजल कोमल अग्रवाल
दस्तक सी दे रहा है वो मेरे मकान पर
ताले पड़ें हैं देखिए कितने जुबान पर।
उसका ही नाम आता है अब तो खुदा के बाद
उठते हैं हाथ मेरे अब हर एक अजान पर।
दोनों को इंतजार है इजहारे यार का
मिलते हैं इसलिए ही शायद दुकान पर।
बाद बरसों के हम फिर से तन्हा हुए
खुद को कोसा किए दिल की बात मान्न कर ।
न वो चुप रह सका न ही कुछ कह सका
तकदी हंस रही है मेरे इम्तहान पर।
जो भर नही सकता तू जख्म मुझ गरीब के
सरताज बन के बैठअ है क्यूँ आसमान पर।
आएगा फैसला मेरे हक मे ही देखना
नजरें गाड़ी हैं आखरी उसके बयान प
डरती हूँ सब्र का ये बांध टूट जाए न
मेघों की ज्यादती है जो नदियां उफान पर।
कोमल को माना लेती हूँ मैं सच ये बोलकर
ये रोग लगाया है मैंने खुद ही जान पर।
दस्तक – गजल कोमल अग्रवाल
दस्तक सी दे रहा है वो मेरे मकान पर
ताले पड़ें हैं देखिए कितने जुबान पर।
उसका ही नाम आता है अब तो खुदा के बाद
उठते हैं हाथ मेरे अब हर एक अजान पर।
दोनों को इंतजार है इजहारे यार का
मिलते हैं इसलिए ही शायद दुकान पर।
बाद बरसों के हम फिर से तन्हा हुए
खुद को कोसा किए दिल की बात मान्न कर ।
न वो चुप रह सका न ही कुछ कह सका
तकदी हंस रही है मेरे इम्तहान पर।
जो भर नही सकता तू जख्म मुझ गरीब के
सरताज बन के बैठअ है क्यूँ आसमान पर।
आएगा फैसला मेरे हक मे ही देखना
नजरें गाड़ी हैं आखरी उसके बयान प
डरती हूँ सब्र का ये बांध टूट जाए न
मेघों की ज्यादती है जो नदियां उफान पर।
कोमल को माना लेती हूँ मैं सच ये बोलकर
ये रोग लगाया है मैंने खुद ही जान पर।