(9) डूब आया मैं लहरों में !
छोड़ सब भौतिक द्वंद्वों को
साथ लेकर पीड़ित मन को ,
डूब आया मैं लहरों में ।
कहाँ अब कुत्सा का वह जाल ?
कहाँ अब छलना का वह व्याल ?
कहाँ वह मन की तड़प कराल ?
कहाँ करुणा का छल छल ताल ?
उठा , सब को समेट ,रख अलग,
विहंस जागा तंद्रित अलसित ,
डूब आया मैं लहरों में ।
ताल में प्रतिबिंबित सुविशाल
सुदृढ़ मंदिर का गर्वित भाल
लहर में ज्यों बल खाता व्याल
कौन क्या — कब गिनता है काल ?
सुदृढ़ता मन की सारी तोड़ ,
ध्वंश को निष्चिन्ता से जोड़,
तैरता हूँ मैं लहरों में ।
प्रखर सूरज का तपता भाल
करे उसको मज्जित यह ताल
अभी तक वही रहा था शाल
बना पर आखिर पयस्-मराल
छोड़कर सहज सूर्य का ताप
जलज की कोमलता ले साथ
काँपता हूँ मैं लहरों मैं |
न कल होगा यह जलमय ताल,
तप्त हो जाऊँगा तत्काल,
प्रखरता रवि की जल में डाल,
बनूँगा फिर लहरों का जाल |
“चक्रवत भावों का उद्वेग
नहीं ऋजु जीवन की यह रेख
चक्रवत घटनाओं का लेख |
पाप में पुण्य ,पुण्य में पाप
निहित दिखलाते सब अभिलेख |
क्षणों में जीते हम निरुपाय,
संस्कारों से पीड़ित हाय,
नयी पीढ़ी अब चिंतित नित्य,
एक जीवन की गति ही सत्य ,
मृत्यु है अंतिम जिसका लेख |
यही लेकर असार का सार,
इसी दर्शन का लेकर भार,
डूब जाता हूँ लहरों में |
स्वरचित एवं मौलिक
रचयिता : (सत्य ) किशोर निगम