8) वो मैं ही थी….
गुज़री शाम देखा हो ‘गर आसमां की जानिब तुमने,
इक अकेला पंछी उड़ता नज़र आया होगा तुम्हें।
नज़रअंदाज़ कर दिया होगा जिसे तुमने मगर,
याद करो तो मेरा अक्स नज़र आएगा तुम्हें।
कभी इधर कभी उधर
फकत तुम्हारी जुस्तजू में
मैं ही थी…
मेरा ही तो दिल था
झूम उठा जो जुस्तजू पूरी होने पर।
अपने ख्वाबों के पर खोले
तुम्हारे दर पर ताबीर पाने को
वह अदना सा परिंदा जो उतरा
वो मैं ही थी…
तुम्हें तन्हा उदास पाकर
तुम्हारे पहलू में जो उतरी
वो मैं ही थी…
तुम्हारे गम, तुम्हारी फ़िक्र
अपने दामन में समेट
ख़ामोशी से जो उड़ चली
तुम्हें मसर्रतों की जन्नत में जो छोड़ चली
वो मैं ही तो थी…
हाँ,
मैं ही थी वो।
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नेहा शर्मा ‘नेह’