8. तेरा बेजान शहर !
अब तेरा शहर क्यों इतना वीरान पड़ा है।
इस मुसाफिर से क्यों भला अंजान पड़ा है।।
ये राहें, ये गलियां क्या सच में भूल गयी मुझे।
जिस में हमारा सदियों का पहचान पड़ा है।।
ये पगडंडियां क्यों मुँह मोड़े हैं मुझ से इस तरह।
जहाँ हमारे पैरों का अब तक हर निशान पड़ा है।।
क्यों लगती है अब ये नगरी परायी परायी मुझे।
लगता है हर ज़िंदा यहाँ फ़क़त बेजान पड़ा है।।
कोई रास्ता अब बताता नहीं मुझे तेरे घर का पता।
अब हर गली, हर कूचा जैसे ख़ाली सुनसान पड़ा है।।
खामोश क्यों पड़ी हैं तेरी खेलती वो अठखेलियां।
क्यों हर डगर तेरे बिना फ़क़त हैरान सा पड़ा है।।
अब मेरी धड़कनें भी हो गयी हैं काफ़ी परेशां सी।
साँसें टूट रही हैं सामने शहर का क़ब्रिस्तान पड़ा है।।
मो• एहतेशाम अहमद,
अण्डाल, पश्चिम बंगाल, इंडिया